
प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठक
पृथ्वीक जन्म
संसारमे पाप बेसी भऽ जेबासँ पृथ्वी पड़ा कऽ पाताल चलि गेली। एहिसँ देवतागण सेहो चिन्तित भऽ उठला। एक दिन ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता सभ एहिपर विचार करबा लेल बैसला जे कोन एहन उपाय हो जे पृथ्वी ऊपर आबथि आ फेरसँ संसार बसि सकय। अन्तमे हुनका प्रार्थना कऽ प्रसन्न करबाक निर्णय भेल। देवता सभ पाताल गेला आ पृथ्वीक प्रार्थना केलनि जे ऊपर आबथु।
पृथ्वी कहलथिन- ‘हमरेपर सम्पूर्ण जीव-जन्तु, गाछ-बिरिछ, मनुक्ख आदि रहै छथि आ हमरे क्यौ चिन्ता नञि करै छथि। हमहीँ सभकेँ अन्न-पानि दै छी, मुदा हमरे क्यौ चिन्ता नञि करैत अछि। सभ हमरेपर मल-मूत्रक त्याग करैत अछि। हमर अपमान करैत अछि।’
देवता लोकनि भरोस देलथिन जे हुनक जे क्यौ अपमान करत हुनका पाप हेतनि। पृथ्वीसँ कहलथिन- ‘जे अहाँसँ क्षमा मङने बिनु अहाँपर पैर धरत से पापक भागी होयत। तहिना जे मल-मूत्र त्यागि ओकरा देखि लेत सेहो स्वयं पापक भागी होयत।’
देवतागणक विनय-प्रार्थनापर पृथ्वी पसीझि गेली आ ऊपर आबि गेली। तखन ओ डगमग कऽ रहल छली। तखन भगवान विष्णु काछु केर रूप धारण कऽ हुनका अपना पीठपर राखि लेलथिन।
समुद्र-मन्थन
समुद्र-मन्थन करबापर विचार लेल देवतागण सुमेरु पर्वतपर जुटला। विष्णु केर विचार भेलनि जे समुद्र-मन्थन देवता आ दानव दुनू मिलि कऽ करथु। हुनके विचारसँ वासुकी नागकेँ बजाओल गेलनि। ओ आबि मन्दराचल पर्वतमे लपटा गेला आ ओकरा उखाड़ि समुद्रक कात लऽ अनलनि। ओ समुद्र-मन्थनसँ प्राप्त होबऽवला अमृतमे हिस्सा भेटबाक आश्वासनपर मन्थनक कष्ट सहबा लेल तैयार भऽ गेला। मन्थनक तँयारी तँ भऽ गेल, मुदा समस्या ई ठाढ़ भऽ गेल जे मन्थन लेल समुद्रमे रखबापर एतेक भारी मन्दार पर्वते डूबि जाइत। कोनो एहन आधार तँ चाही जाहिपर मन्थार रहि सकय आ डूबय नञि। अन्तमे देवता लोकनिक कूर्मराज (काछु) सँ आग्रह केलनि। कच्छप आधार बनि मन्दार पर्वतक भार सहबा लेल तैयार भऽ गेला। तखन कूर्मराजपर मन्दारकेँ राखि मथनी बनाओल गेल। वासुकी नाग मन्थन लेल रस्सी बनला। वासुकी नागक फन दिस दानव पकड़लनि आ नाङरि दिस देवतागण। समुद्र-मन्थन आरम्भ भेल। एहिसँ समुद्रक जीव-जन्तु सभ पिसाय लागल। मन्दारपर लागल गाछ-बिरिछ सभ अपनामे रगड़ा कऽ टूटि-टूटि समुद्रमे खसऽ लागल। ओहि रगड़सँ पर्वतमे आगि लागि गेल। एहिसँ पर्वतपर केर जड़ी-बूटी, सोना-चानी, मूङा आदि जरि कऽ भस्म भऽ गेल। देवता आ दानव गर्मीसँ व्याकुल भऽ उठला तँ शीतलता देबा लेल इन्द्र वर्षा करऽ लगला जाहिसँ अमृतमय सभटा भस्म धोखरि-धोखरि समुद्रमे खसऽ लागल। एहिसँ समुद्रक पानि नोनगरसँ दूध भऽ गेल आ बेसी काल धरि मन्थनसँ घी बनि गेल। एकर बादो जखन बड़ी काल मन्थन कयल गेल तँ समुद्रसँ लक्ष्मी, सुरा (मदिरा), उच्चैश्रवा घोड़ा बहार भेल जे चन्द्रमा लोकनि हथिया लेलनि। तकर बाद अमृतक कलश नेने धन्वन्तरि प्रकट भेला। एकर बाद विष बहार भेल जकर तापसँ देवता आ दानव मूर्च्छित होबऽ लगला। एहिसँ हाहाकार मचि गेल। ई हाल देखि विष्णु भगवान महादेवसँ आग्रह केलनि आ ओ सभटा विष पीबि गेला। महादेव सेहो एहिसँ बेहोश भऽ गेला। तखन माता गौरीक नेहोरा-मिनतीपर बिसहराक संग सभ साँप, बिढ़नी, चुट्टी, पिपरी आदि जा कऽ महादेवक शरीरसँ लपटा गेल आ विष बहार केलक। अन्तमे सभ महादेवक कण्ठमे कनेक विष छोड़ि देलकनि जाहिसँ हुनक कण्ठ नील भऽ गेलनि आ ओ नीलकण्ठ कहल जाय लगला।
एमहर अमृत लेल देवता आ दानवमे झगड़ा होबऽ लागल। दानव सभक कहब छल जे समुद्रसँ बहार भेल सभटा वस्तु देवता सभ अपनामे बाँटिए लेलनि। जाहि अमृत लेल समुद्र-मन्थन भेल ताहिमे सँ हुनको सभकेँ बखरा चाही। देवका सभकेँ चिन्ता छलनि जे दानव सभ बहुत बलिष्ठ अछि, कतेको बेर हुनका सभकेँ स्वर्गसँ खेहारि कऽ भगा चुकल छनि। जँ अमृत पीबि लेत तँ अमर भऽ जायत आ तखन सभ दिन देवता सभकेँ देबेने रहत। तखन भगवान विष्णु मोहिनीक रूप धारण कऽ दानव सभक आगाँ ठाढ़ भऽ गेला। दानव मोहिनीक स्त्री रूपसँ मोहित भऽ गेल आ अमृतक कलश हुनका हाथमे दऽ देवता सभसँ युद्ध करऽ लागल। मोहिनी रूप धेने भगवान नारायण देवता लोकनिकेँ अमृत पियाबऽ लगला। ई राहु नामक दैत्य देखि लेलक आ देवताक रूप धऽ ओहो अमृत पीबि लेलक, मुदा ओकरा देवताक रूप धरैत सूर्य आ चन्द्रमा देखि नेने छला। ओ विष्णुकेँ एकर जानकारी देलनि। जाबत राहुक कण्ठसँ नीचा अमृत उतरैत ताहिसँ पहिने विष्णु अपन चक्रसँ ओकर गर्दनि काटि देलनि। अमृत-पान करबाक कारण राहु मरि तँ नञि सकल, मुदा ओ दू खण्ड भऽ गेल। गर्दनि वला खण्डक नाम राहु आ धड़ वला खण्डक नाम केतु पड़ल। तहिएसँ ओ सूर्य आ चन्द्रमाक शत्रु बनि गेल। तेँ एखनो अमावश्यामे सूर्यकेँ आ पूर्णिमामे चन्द्रमाकेँ ओ गीड़ि लैत अछि जाहिसँ सूर्यग्रहण आ चन्द्रग्रहण होइत अछि। जेँ ओकर गर्दनि आ धड़ फराक छै तेँ सूर्य आ चन्द्रमाक ओहिसँ उग्रास भऽ जाइ छनि, माने ओ बहरा जाइ छथि।
एमहर देवता लोकनिकेँ अमृत पिएबाक बाद विष्णु अस्त्र-शस्त्र लऽ दानव सभसँ कसगर युद्ध केलनि आ सभकेँ मारि-काटि कऽ पराजित कऽ देलनि। ओ सभ दानवकेँ खेहारि पाताल भगा देलनि। बचल अमृत इन्द्रकेँ दऽ देलथिन। इन्द्र ओकर रखबारिक भार विश्वकर्माकेँ देलनि। समुद्र-मन्थनमे वासुकी नाग रस्सीक काज केने छला तेँ देवता लोकनि हुनका आशीर्वाद देलथिन जे हुनका मायक श्राप कहियो नञि लगतनि आ ओ जन्मेजयक यज्ञमे सपरिवार नञि जरता। हुनकर भागिन आस्तिक मुनि हुनक रक्षा करथिन।
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