ग्दानवीरक कथा
महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ उद्धृत
प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठक
उज्जयिनी नामक एक राजधानी छल। ओतऽ विक्रमादित्य नामक राजा भेला। ओ एक दिन सिंहानपर बैसल कोनो वैतालिक द्वारा पठित एक श्लोक सुनलनि जकर अर्थ छल-
‘दानवीर राजा बलाहक जय जयकार। ओ राजा ओहने महान छथि जनिक गुणगान सन्तुष्टमन ब्राह्मण लोकनि, पूर्ण मनोरथ प्रसन्नचित बन्दी लोकनि, इच्छापूर्तिसँ कृतार्थ नोकर सभ, अधीनस्थ देश-देशक राजागण, बन्दी भेल पण्डित समुदाय ओ स्वर्ण पुरस्कार प्राप्त योद्धा लोकनि दिशा-दिशामे नित्य नियमित रूपेँ करैत रहै छथि।’
एकर बाद राजा उक्त श्लोक पढ़निहार वैतालिककेँ कहलनि- ‘हौ वैतालिक! तोहर ई राजा बलाह थिका के? हमरा आगाँ एना गर्वपूर्वक हुनक उत्कर्षक वर्णन किए कऽ रहल छऽ?’
वैतालिक बाजल- ‘हम थिकहुँ वैतालिक, हमर तँ ई वृत्तिए थिक जे वीर लोकनिक यश दिश-दिश विस्तार करैत रही। कारण, वैतालिक तँ संग्राममे शूरगणकेँ ललकारा दऽ बढ़बैछ, मदान्धकेँ बोध दैछ, कायरक दुर्गुण हटबैछ आ राजा लोकनिक आगाँ विपक्षीक गुणक चर्चा करैछ, वैतालिक प्राण बरु दऽ देत, मुदा हृदयक संकोच कृपणता नञि राखत। तेँ तँ शूर लोकनि हमरा परितोष दै छथि आ हम हुनका सभक यशक अंकुरित पौधकेँ दिग्दिगन्त धरि पल्लवित करैत रहै छी। श्रीमानकेँ जँ से सुनबासँ अमर्ष हो तँ ओहिसँ बेसी वा ओहनो पौरुष देखाओल जाय। एहि हेतु कोप कथीक?’
राजा पुछलनि- ‘केहन की छनि पौरुष?’
वैतालिक बाजल- ‘देव! ओहि बलाह नामक राजाक द्वारिपर सभ राति सोनक एक मन्दिर तैयार होइछ, प्रतिदिन ओकरा काटि-काटि ओकर सोन लऽ कऽ राजा ब्राह्मण, गुणी ओ दरिद्र लोकसभमे बाँटल करै छथि। हुनक एहि दानसँ सन्तुष्ट भऽ कऽ लोक सभ हुनक यशोगान करैत रहै छथि।’
राजा बजला- ‘वैतालिक! तोँ ई सत्य कहै छ?’
वैतालिक कहल- ‘असत्य के कहत? जँ अपनेकेँ विश्वास नञि हो तँ अपन गुप्तचर द्वारा एकर जाँच करबा ली।’
राजा बजला- ‘जा धरि एकर निरूपण नञि कऽ ली ता धरि तोँ एही नगरमे रहऽ। जँ तोहर कहब सत्य हेतऽ तँ तोरा रत्नक पुरस्कारसँ सम्मानित करब। ई कहि राजा वैतालिककेँ बाहर पठेलनि आ अन्त:पुरमे जा एकान्तमे विचार करऽ लगला- बलाहक चरित्र तँ अत्यन्त आर्श्चजनक अछि! अथवा विधाताक सृष्टि-प्रपञ्चमे असम्भव की अछि? तेँ जा कऽ ई कुतूहल देखी- ई विचारि, राज्यक भार मन्त्री लोकनिककेँ दऽ अपने अग्नि ओ कोकिल नामक दू वेतालकेँ बजा, ओकर कान्हपर सवार भऽ बलाहक राजधानी गेला। ओतऽ जुआन सैनिकक वेष बना राजा बलाहकेँ भेट कऽ कहलनि- ‘महाराज! संग्राममे जकर समान क्यौ दोसर योद्धा नञि एहन साहसांक विक्रमादित्य राजाक हम द्वारपाल थिकहुँ, अपनेक नाम यश सुनि अपनेक ओतऽ सेवा हेतु आयल छी।’ ई निवेदन कऽ ओ राजाकेँ प्रणाम केलनि। राजा कहलनि- ‘हे द्वारपाल, तोँ तँ बड़ पैघ महाराजक द्वारपाल थिकॅ, हमरो ओतऽ द्वारहिपर अधिकारी भऽ कऽ रहऽ।’ ओहि दिनसँ विक्रमादित्यक द्वारपर स्थित भऽ, अत्यन्त आश्चर्यजनक घटना देखथि जे प्रतिदिन स्वर्णमन्दिर बनैत अछि आ ओकर समस्त सोन लोकमे बाँटल जाइछ। ओ सोचऽ लगला जे हिनका स्वर्णमन्दिर कोना भेटै छनि, हमरा से किए ने भेटैछ? जे काज कोनो पुरुष कऽ सकैछ तकरा लेल ककरो उदासीन नञि हेबाक थिक। कारणक जाँच तँ कऽ लेब उचित। तखन ओ ओकर कारणक जिज्ञासा करऽ लगला।
एक दिन रातिक निशाभागमे, जखन नगरक लोक आ राजपरिवारक सभ व्यक्ति सूति रहल छला, तखन ओ (विक्रमादित्य) देखलिन जे राजा बलाह अपन महलसँ बहरा नगरसँ बाहर विदा भेला। ई देखि, ओ चुप्पे, जाहिसँ ओ लक्ष्य नञि कऽ सकथि ताहि रुपेँ, हुनका पाछाँ-पाछाँ चलला। बलाह नदीतीरमे स्थित परम भयानक श्मशान पहुँचला, जे श्मशान नाचैत बेताल सभक पदाघातसँ आतंकित डाकिनीक डमरू-निनादसँ, हजारो गिदड़िनीक भूकबसँ आ उद्वेगी राक्षस सभक क्रूर क्रीड़ासँ विकट छल। ओतऽ नदीमे नहेलापर राजा बलाहकेँ भैरवक दूत सभ मनुष्यक ताँतिसँ बान्हि धहधह जरैत आगिसँ तप्त तेल भरल कड़ाहमे फेकि देलक आ राजा अत्यन्त कष्टपूर्वक प्राणत्याग केलनि। हुनक निष्प्राण शरीर जखन तेलमे सुसिद्ध भऽ गेलनि तखन भगवती चामुण्डा प्रत्यक्ष भऽ ओहि मांसकेँ खेलनि। भगवती चामुण्डा परम सन्तुष्ट भऽ राजाक हड्डीकेँ अमृतसँ सिक्त कऽ पुन: हुनका ओहिना बना देलनि। पुन: जीवित राजा बलाह भगवतीकेँ प्रणाम केलनि आ वर मङलनि। बलाह बजला- ‘हे भगवती! दान-यशसँ प्रसिद्ध पुरुष जँ याचक लोकनिक मनोरथ पूर्ण करबामे समर्थ नञि होथि तँ मृत्युसँ बेसी कष्टकर! तेँ मृत्युकेँ स्वीकार कऽ याचक लोकनिक मनोरथकेँ पूर्ण करबाक कामनासँ भगवतीकेँ अपन मांससँ पूजन कयल। अत: हे जननी! हमर कामना पूर कयल जाय।’
देवी बजली- ‘बलाह! भोरे अहाँक द्वारिपर पहिने जकाँ सोनक मन्दिर प्रस्तुत होऽ।’ देवीक वरदान पाबि कृतार्थ भऽ बलाह अपन घर फिरि अयला।
विक्रमादित्य से सभ देखि सोचलनि- ‘वैतालिक सत्ये कहलक। बलाह वस्तुत: दानवीर थिका जे दानक हेतु प्रतिदिन अपन प्राण दऽ धन अर्जन करैत छथि। भगवती तँ दयामयी थिकी। तखन किए ने एके बेर प्राण-अर्पण साहससँ हिनका कृतार्थ करै छथि? अस्तु होअऽ दियौ अगिला राति, जे उचित थिक से करब। ई विचारि ओ राजद्वारपर जा कऽ अपन काज देखऽ लगला।
ओकरा दोसर राति मन्त्री आ सामन्त ओ भृत्य लोकनिसँ घेरल-बेढ़ल बलाह जा एकान्त हेबाक प्रतीक्षामे छला, ता साँझे राति जाबत नगरक लोकसभ सूतल नञि छल ताबते बिनु दोसरकेँ संग नेने एकसरे विक्रमादित्य ओहि स्थानपर पहुँचला, स्नान कऽ खौलैत तेल भरल कड़ाहमे कूदि गेला। भीजल शरीरक मांससँ तेल कड़कड़ा उठल, से सूनि भगवती ओतऽ आबि मांस खेलनि, हुनका हड्डीकेँ अमृतसँ सिचलनि। जखन ओ जीबि उठला तखन हुनका बलाह बूझि भगवती वर देबाक इच्छा करिते छथि ताबत ओ फेर कड़ाहमे कूदि पड़ला। फेर भगवती हुनक मांस खेलनि। एहि प्रकारेँ बेरबेर ओ जियाओल गेला आ पुन: कड़ाहमे झम्प लैत गेला। एहन सात्विक स्वभाववला धीर पुरुष ई विक्रमादित्ये थिका से बुझि भगवती बजली- ‘हे विक्रमादित्य! अहाँपर तँ हम प्रसन्ने छी। अहाँकेँ आठो सिद्धि प्राप्ते अछि? हम तँ ने हुनक मांससँ आ ने अहाँक मांससँ तृप्त होइ छी, मात्र हम पुरुषक साहसक जाँच करबा लेल कृत्रिम भूख ओ तृप्ति देखबै छी। एखन हम अहाँक साहससँ सन्तुष्ट भेल छी। वर माङू।’
तखन विक्रमादित्य प्रणाम कऽ वर मङलनि। विक्रमादित्य कहलनि- ‘देवी! अहाँ जगन्माता छी, भक्तक प्रति वात्सल्य रखनिहार छी। बलाहक प्रति दया भेल तेँ अपनेक आराधना केलहुँ अछि जे बलाहकेँ मृत्युवरणक साहस बिनु केनहुँ हुनक द्वारिपर सोनक मन्दिर प्रस्तुत होइत रहौन।’
भगवती बजली- ‘तहिना होऽ।’
एहि प्रकारेँ वरदान प्राप्त कऽ विक्रमादित्य अपन राज्य फिरला। जे वैतालिक सत्यवार्ता कहने रहनि तकरा बजा, रत्न-वस्त्र आ घोड़ा-हाथी प्रदान कऽ पुरस्कृत केलनि। एमहर बलाह, जखन नगरक लोक सभ सूति रहल छल, जनशून्य रातिक निशाभागमे श्मशान पहुँला तँ किछु देखबामे नञि एलनि, मुदा आकाशवाणी सुनबामे एलनि- ‘हे बलाह! विक्रमादित्य अहाँक कष्टकेँ दूर कऽ गेल छथि।’ अर्थ स्पष्ट बुझबामे नञि एलनि तेँ गुनिधुनि करैत, भिनसर याचक लोकनिकेँ हम की देबनि एकर चिन्ता करैत घर जा पलंगपर पड़ि रहला, मुदा निद्रा नञि भेलनि। जागल-जागल करौटो नञि लेलनि, तैयो द्वारपाल प्राते आबि जगेलकनि। सोनक मन्दिर पहिने जकाँ द्वारिपर देखि ओ (बलाह) कृतार्थ भेला। प्रसंगसँ आकाशवाणीक अर्थ आब बुझबामे एलनि जे विक्रमादित्यक प्रसादसँ हमरा से सिद्धि भेटल जाहिसँ बेरबेर मरणक आयास-प्रयासक अपेक्षा नञि रहल। हुनक एहि निर्धारित विषयकेँ, वैतालिक सभामे आबि कऽ पुन: दोहरा कऽ कहलक।
विक्रम केसरी राजा पुरुष लोकनिमे पहिल उल्लेख हेबा योग्य छथि, जनिक दया दानवीरो केर विषयमे कल्पलता (मनोरथ साधक) सिद्ध भेल।
महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ उद्धृत
प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठक
उज्जयिनी नामक एक राजधानी छल। ओतऽ विक्रमादित्य नामक राजा भेला। ओ एक दिन सिंहानपर बैसल कोनो वैतालिक द्वारा पठित एक श्लोक सुनलनि जकर अर्थ छल-
‘दानवीर राजा बलाहक जय जयकार। ओ राजा ओहने महान छथि जनिक गुणगान सन्तुष्टमन ब्राह्मण लोकनि, पूर्ण मनोरथ प्रसन्नचित बन्दी लोकनि, इच्छापूर्तिसँ कृतार्थ नोकर सभ, अधीनस्थ देश-देशक राजागण, बन्दी भेल पण्डित समुदाय ओ स्वर्ण पुरस्कार प्राप्त योद्धा लोकनि दिशा-दिशामे नित्य नियमित रूपेँ करैत रहै छथि।’
एकर बाद राजा उक्त श्लोक पढ़निहार वैतालिककेँ कहलनि- ‘हौ वैतालिक! तोहर ई राजा बलाह थिका के? हमरा आगाँ एना गर्वपूर्वक हुनक उत्कर्षक वर्णन किए कऽ रहल छऽ?’
वैतालिक बाजल- ‘हम थिकहुँ वैतालिक, हमर तँ ई वृत्तिए थिक जे वीर लोकनिक यश दिश-दिश विस्तार करैत रही। कारण, वैतालिक तँ संग्राममे शूरगणकेँ ललकारा दऽ बढ़बैछ, मदान्धकेँ बोध दैछ, कायरक दुर्गुण हटबैछ आ राजा लोकनिक आगाँ विपक्षीक गुणक चर्चा करैछ, वैतालिक प्राण बरु दऽ देत, मुदा हृदयक संकोच कृपणता नञि राखत। तेँ तँ शूर लोकनि हमरा परितोष दै छथि आ हम हुनका सभक यशक अंकुरित पौधकेँ दिग्दिगन्त धरि पल्लवित करैत रहै छी। श्रीमानकेँ जँ से सुनबासँ अमर्ष हो तँ ओहिसँ बेसी वा ओहनो पौरुष देखाओल जाय। एहि हेतु कोप कथीक?’
राजा पुछलनि- ‘केहन की छनि पौरुष?’
वैतालिक बाजल- ‘देव! ओहि बलाह नामक राजाक द्वारिपर सभ राति सोनक एक मन्दिर तैयार होइछ, प्रतिदिन ओकरा काटि-काटि ओकर सोन लऽ कऽ राजा ब्राह्मण, गुणी ओ दरिद्र लोकसभमे बाँटल करै छथि। हुनक एहि दानसँ सन्तुष्ट भऽ कऽ लोक सभ हुनक यशोगान करैत रहै छथि।’
राजा बजला- ‘वैतालिक! तोँ ई सत्य कहै छ?’
वैतालिक कहल- ‘असत्य के कहत? जँ अपनेकेँ विश्वास नञि हो तँ अपन गुप्तचर द्वारा एकर जाँच करबा ली।’
राजा बजला- ‘जा धरि एकर निरूपण नञि कऽ ली ता धरि तोँ एही नगरमे रहऽ। जँ तोहर कहब सत्य हेतऽ तँ तोरा रत्नक पुरस्कारसँ सम्मानित करब। ई कहि राजा वैतालिककेँ बाहर पठेलनि आ अन्त:पुरमे जा एकान्तमे विचार करऽ लगला- बलाहक चरित्र तँ अत्यन्त आर्श्चजनक अछि! अथवा विधाताक सृष्टि-प्रपञ्चमे असम्भव की अछि? तेँ जा कऽ ई कुतूहल देखी- ई विचारि, राज्यक भार मन्त्री लोकनिककेँ दऽ अपने अग्नि ओ कोकिल नामक दू वेतालकेँ बजा, ओकर कान्हपर सवार भऽ बलाहक राजधानी गेला। ओतऽ जुआन सैनिकक वेष बना राजा बलाहकेँ भेट कऽ कहलनि- ‘महाराज! संग्राममे जकर समान क्यौ दोसर योद्धा नञि एहन साहसांक विक्रमादित्य राजाक हम द्वारपाल थिकहुँ, अपनेक नाम यश सुनि अपनेक ओतऽ सेवा हेतु आयल छी।’ ई निवेदन कऽ ओ राजाकेँ प्रणाम केलनि। राजा कहलनि- ‘हे द्वारपाल, तोँ तँ बड़ पैघ महाराजक द्वारपाल थिकॅ, हमरो ओतऽ द्वारहिपर अधिकारी भऽ कऽ रहऽ।’ ओहि दिनसँ विक्रमादित्यक द्वारपर स्थित भऽ, अत्यन्त आश्चर्यजनक घटना देखथि जे प्रतिदिन स्वर्णमन्दिर बनैत अछि आ ओकर समस्त सोन लोकमे बाँटल जाइछ। ओ सोचऽ लगला जे हिनका स्वर्णमन्दिर कोना भेटै छनि, हमरा से किए ने भेटैछ? जे काज कोनो पुरुष कऽ सकैछ तकरा लेल ककरो उदासीन नञि हेबाक थिक। कारणक जाँच तँ कऽ लेब उचित। तखन ओ ओकर कारणक जिज्ञासा करऽ लगला।
एक दिन रातिक निशाभागमे, जखन नगरक लोक आ राजपरिवारक सभ व्यक्ति सूति रहल छला, तखन ओ (विक्रमादित्य) देखलिन जे राजा बलाह अपन महलसँ बहरा नगरसँ बाहर विदा भेला। ई देखि, ओ चुप्पे, जाहिसँ ओ लक्ष्य नञि कऽ सकथि ताहि रुपेँ, हुनका पाछाँ-पाछाँ चलला। बलाह नदीतीरमे स्थित परम भयानक श्मशान पहुँचला, जे श्मशान नाचैत बेताल सभक पदाघातसँ आतंकित डाकिनीक डमरू-निनादसँ, हजारो गिदड़िनीक भूकबसँ आ उद्वेगी राक्षस सभक क्रूर क्रीड़ासँ विकट छल। ओतऽ नदीमे नहेलापर राजा बलाहकेँ भैरवक दूत सभ मनुष्यक ताँतिसँ बान्हि धहधह जरैत आगिसँ तप्त तेल भरल कड़ाहमे फेकि देलक आ राजा अत्यन्त कष्टपूर्वक प्राणत्याग केलनि। हुनक निष्प्राण शरीर जखन तेलमे सुसिद्ध भऽ गेलनि तखन भगवती चामुण्डा प्रत्यक्ष भऽ ओहि मांसकेँ खेलनि। भगवती चामुण्डा परम सन्तुष्ट भऽ राजाक हड्डीकेँ अमृतसँ सिक्त कऽ पुन: हुनका ओहिना बना देलनि। पुन: जीवित राजा बलाह भगवतीकेँ प्रणाम केलनि आ वर मङलनि। बलाह बजला- ‘हे भगवती! दान-यशसँ प्रसिद्ध पुरुष जँ याचक लोकनिक मनोरथ पूर्ण करबामे समर्थ नञि होथि तँ मृत्युसँ बेसी कष्टकर! तेँ मृत्युकेँ स्वीकार कऽ याचक लोकनिक मनोरथकेँ पूर्ण करबाक कामनासँ भगवतीकेँ अपन मांससँ पूजन कयल। अत: हे जननी! हमर कामना पूर कयल जाय।’
देवी बजली- ‘बलाह! भोरे अहाँक द्वारिपर पहिने जकाँ सोनक मन्दिर प्रस्तुत होऽ।’ देवीक वरदान पाबि कृतार्थ भऽ बलाह अपन घर फिरि अयला।
विक्रमादित्य से सभ देखि सोचलनि- ‘वैतालिक सत्ये कहलक। बलाह वस्तुत: दानवीर थिका जे दानक हेतु प्रतिदिन अपन प्राण दऽ धन अर्जन करैत छथि। भगवती तँ दयामयी थिकी। तखन किए ने एके बेर प्राण-अर्पण साहससँ हिनका कृतार्थ करै छथि? अस्तु होअऽ दियौ अगिला राति, जे उचित थिक से करब। ई विचारि ओ राजद्वारपर जा कऽ अपन काज देखऽ लगला।
ओकरा दोसर राति मन्त्री आ सामन्त ओ भृत्य लोकनिसँ घेरल-बेढ़ल बलाह जा एकान्त हेबाक प्रतीक्षामे छला, ता साँझे राति जाबत नगरक लोकसभ सूतल नञि छल ताबते बिनु दोसरकेँ संग नेने एकसरे विक्रमादित्य ओहि स्थानपर पहुँचला, स्नान कऽ खौलैत तेल भरल कड़ाहमे कूदि गेला। भीजल शरीरक मांससँ तेल कड़कड़ा उठल, से सूनि भगवती ओतऽ आबि मांस खेलनि, हुनका हड्डीकेँ अमृतसँ सिचलनि। जखन ओ जीबि उठला तखन हुनका बलाह बूझि भगवती वर देबाक इच्छा करिते छथि ताबत ओ फेर कड़ाहमे कूदि पड़ला। फेर भगवती हुनक मांस खेलनि। एहि प्रकारेँ बेरबेर ओ जियाओल गेला आ पुन: कड़ाहमे झम्प लैत गेला। एहन सात्विक स्वभाववला धीर पुरुष ई विक्रमादित्ये थिका से बुझि भगवती बजली- ‘हे विक्रमादित्य! अहाँपर तँ हम प्रसन्ने छी। अहाँकेँ आठो सिद्धि प्राप्ते अछि? हम तँ ने हुनक मांससँ आ ने अहाँक मांससँ तृप्त होइ छी, मात्र हम पुरुषक साहसक जाँच करबा लेल कृत्रिम भूख ओ तृप्ति देखबै छी। एखन हम अहाँक साहससँ सन्तुष्ट भेल छी। वर माङू।’
तखन विक्रमादित्य प्रणाम कऽ वर मङलनि। विक्रमादित्य कहलनि- ‘देवी! अहाँ जगन्माता छी, भक्तक प्रति वात्सल्य रखनिहार छी। बलाहक प्रति दया भेल तेँ अपनेक आराधना केलहुँ अछि जे बलाहकेँ मृत्युवरणक साहस बिनु केनहुँ हुनक द्वारिपर सोनक मन्दिर प्रस्तुत होइत रहौन।’
भगवती बजली- ‘तहिना होऽ।’
एहि प्रकारेँ वरदान प्राप्त कऽ विक्रमादित्य अपन राज्य फिरला। जे वैतालिक सत्यवार्ता कहने रहनि तकरा बजा, रत्न-वस्त्र आ घोड़ा-हाथी प्रदान कऽ पुरस्कृत केलनि। एमहर बलाह, जखन नगरक लोक सभ सूति रहल छल, जनशून्य रातिक निशाभागमे श्मशान पहुँला तँ किछु देखबामे नञि एलनि, मुदा आकाशवाणी सुनबामे एलनि- ‘हे बलाह! विक्रमादित्य अहाँक कष्टकेँ दूर कऽ गेल छथि।’ अर्थ स्पष्ट बुझबामे नञि एलनि तेँ गुनिधुनि करैत, भिनसर याचक लोकनिकेँ हम की देबनि एकर चिन्ता करैत घर जा पलंगपर पड़ि रहला, मुदा निद्रा नञि भेलनि। जागल-जागल करौटो नञि लेलनि, तैयो द्वारपाल प्राते आबि जगेलकनि। सोनक मन्दिर पहिने जकाँ द्वारिपर देखि ओ (बलाह) कृतार्थ भेला। प्रसंगसँ आकाशवाणीक अर्थ आब बुझबामे एलनि जे विक्रमादित्यक प्रसादसँ हमरा से सिद्धि भेटल जाहिसँ बेरबेर मरणक आयास-प्रयासक अपेक्षा नञि रहल। हुनक एहि निर्धारित विषयकेँ, वैतालिक सभामे आबि कऽ पुन: दोहरा कऽ कहलक।
विक्रम केसरी राजा पुरुष लोकनिमे पहिल उल्लेख हेबा योग्य छथि, जनिक दया दानवीरो केर विषयमे कल्पलता (मनोरथ साधक) सिद्ध भेल।
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