Sunday, 22 September 2013

पितृ तर्पण सन चिन्तन बनेलक राष्टÑकेँ विश्वगुरु

 
              पितृ तर्पण सन चिन्तन बनेलक राष्टÑकेँ विश्वगुरु 

                                                                  - अमलेन्दु शेखर पाठक 
आसिन मास अबिते पाबनि-तिहारक हूलिमालि आरम्भ भऽ गेल अछि। एही मास शक्तिक अधिष्ठात्री भगवती दुर्गाक पूजा-अर्चनामे जनमानस डूबि जायत। भक्तिक कलकल प्रवाहमे डुब्बी देबा लेल सभ उताहुल हेता। ओना तँ भारतीय चिन्तन परम्परामे प्रतिदिन कोनो ने कोनो पाबनि होइते अछि, मुदा दुर्गापूजा सन पाबनि-तिहार जाहिमे समाज समवेत भऽ एक सुर-एक राग-एक लयमे आबि जाइत अछि तकर क्रम आसिन अबिते पितृपक्षसँ आरम्भ भऽ जाइत अछि। एकर बाद दुर्गा पूजा, कोजागरा, दीपावली, लक्ष्मी पूजन, काली पूजन, गोवर्द्धन पूजा, भ्रातृद्वितीया, चित्रगुप्त पूजा, छठि आदि बेराबेरी अबैत रहत आ आनन्दक सागरमे हमरा लोकनि उभचुभ करैत रहब।
ई सभ पाबनि अपना अन्तरमे कोनो ने कोनो सन्देश सहेजने अछि। ताहिमे ‘पितृ-तर्पण’ तेहन अछि जे अपन विशाल चिन्तनक आधारपर भारत राष्टÑकेँ विश्व भरिमे विशिष्ट परिचय दैत अछि। एहने सुचिन्तन विश्वगुरुक आसनपर एहि राष्टÑकेँ प्रतिष्ठित केने होयत। कहाँ ओ पाश्चात्य संस्कृति जाहिमे जीवित माता-पितो लेल लोककेँ पलखति नञि रहै छनि। हुनका संग बैसबा-उठबाक आ नीक-बेजाय बतिएबाक बात तँ दूर रहल, अपन ओहि माता-पिताक पालन-पोषण धरि करबाक दायित्वसँ सन्तान छिटकैत अछि जे अपन कोँढ़-करेज खखोरि ओकरापर अर्पित करैत रहला। हुनका ‘ओल्ड हाउस’ मे ठेलि दैत अछि। माता-पिता असगरे अपन तीन-चारि-पाँच सन्तानकेँ पोसैत अछि आ हुनक चारि-चारि पाँच-पाँच सन्तान एक गोट माय-बापकेँ संग नञि राखि नञि राखि पबैत अछि। आ अपना ओहि ठाम, अपना ओहि ठाम जीवित के कहय, दिवंगत पीढ़ी पर्यन्तकेँ मन पाड़ल जाइ छनि। हुनक स्मरण मात्र नञि कयल जाइत अछि, अपितु हुनक तृप्ति केर कामना कयल सेहो कयल जाइ छनि। से ओहि पुरुखा लेल जकरा तर्पण केनिहार देखबो ने केलनि। बहुतसँ बहुत अपन पिता, बाबा, परबाबाकेँ देखने रहै छथि, मुदा पितृपक्षमे अपन सभ पूर्वजकेँ जल-दान करैत हुनका तृप्ति भेटनि तकर अभ्यर्थना करै छथि। से एक-दू दिन नञि, पूरापूरी एक पन्द्रहिया। आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदासँ लऽ पन्द्रह दिन धरि पवित्रता पूर्वक रहै छथि। माछ-मासुसँ परहेज रखै छथि।
अखिल विश्वक कल्याण कामना
पितृ-तर्पणक विधानमे निहित चिन्तन एकरा अखिल विश्वक कल्याण कामनासँ युक्त करैत अछि। विश्वक आन-आन देशमे जतऽ जन्म देनिहारोक चिन्ता नञि कयल जाइत अछि, ओतहि पितृ-तर्पणक विधान सृष्टिक सभ दिवंगतकेँ स्मरण करबाक अवसर दैत अछि। पिताक निधन केर बाद पुत्र द्वारा तर्पणक विधान अछि। जाबत पिता रहै छथि ताबत वैह अपन पितरकेँ तर्पण करैत जल दै छथि। जखन ओहो पितर कोटिमे आबि जाइ छथि, माने गोलोकवासी होइ छथि तँ हुनक स्थान पुत्र लै छथि। हाथमे तिल-कुश लऽ कोनो जलाशयमे ठाढ़ भेल पितरकेँ जलार्पण कऽ हुनका तृप्ति लेल जुटि जाइ छथि। एहि क्रममे जे मंत्र पढ़ल जाइत अछि ओ अपना पुरुखा लेल तँ पढ़िते छथि, ओहि दिवंगत व्यक्तिक तृप्तिक कामना सेहो करै छथि जे हुनक सम्बन्धियो नञि रहलथिन अछि-
‘ये बान्धवाऽबान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा:
ते   सर्वे   तृप्तिमायान्तु   यष्टास्मत्तुऽभिवाञ्छति’
एहि मंत्रमे कतहु ई नञि कहल जाइत अछि जे जलदाता भारत देश मात्रमे जन्म लऽ दिवंगत भेनिहारक तृप्तिक कामना करै छथि। मान्यता अछि जे पुत्र द्वारा देल गेल जलसँ पितर तृप्त होइ छथि, मुदा जिनका पुत्र नञि छनि? घर-परिवारमे आर क्यौ नञि छनि जे हुनका जलदान करता, पत्नी सेहो नञि छथिन तखन? भारतीय चिन्तन हुनको चिन्ता केलक अछि आ तर्पण केनिहार हुनको जल अर्पित करै छथि-
‘ये मे पुने लुप्त पिण्डा पुत्र-दारा विवर्जिता
तेषांहि तत्तमक्षय्यं इदमुस्तु तिलकोदकम’
एतबे नञि, समग्र भुवन भरिक लेल स्पष्ट विधान अछि-
‘अतीत कुल कोटिनां सप्तद्वीप निवासिनां
आब्रह्म भुवनांलोकात् इदमस्तु तिलकोदकम्’
एहि चिन्तनक विशालता तखन आरो बढ़ि जाइत अछि जखन एहिमे मानवे नञि प्राणि मात्रक कल्याणक कामना जुटि जाइत अछि।
साँप पर्यन्तक तृप्तिक अभिलाषा
भारतीय चिन्तन जीव मात्रमे परमात्माक निवास मानैत अछि आ तदनुकूल आचरणो करैत अछि। बरमहल कहल जाइत अछि जे सभ जीव साँप-गोजर, चिड़ै-चुनमुन्नी, चुट्टी-पिपरी सभमे एके आत्माक निवास अछि। अद्वैत वेदान्तक सर्वमान्य सिद्धान्त अछि-
‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मै ना पर:’
अर्थात् ब्रह्म मात्र सत्य थिका, संसार मिथ्या अछि आ जीव ब्रह्मे थिका। एही सिद्धान्तपर आदि गुरु शंकराचार्यक शांकर भाष्य छनि। एहि सिद्धान्तकेँ मात्र वचनेमे समेटि कऽ नञि राखल गेल अछि, अपितु एकरा व्यवहारमे सेहो आनल गेल अछि आ एहि हिसाबे पितृ-तर्पणक क्रममे जीव मात्रक तृप्तिक कामना कयल जाइत अछि। देवता, यक्ष, गन्धर्व, अप्सराक संग साँप, सियार, जल-अकासमे विचरण केनिहार, जीव मात्रक कल्याण-कामना कयल जाइत अछि। आर तँ आर पाप-धर्म जाहिमे क्यौ लिप्त रहल होथि ई अवसर सभक सुचिन्तन लेल प्रेरित करैत अछि-
‘देवा: यक्षा: तथा नागा गन्धर्वो अप्सरागणा:
क्रूरा सर्पा: सुपर्णाश्च सर्वो जम्बको खगा:
विद्याधार जलधारा तथैवाकाशगामिन:
निराधाराश्च जे जीवा: पापे-धर्मे रताश्च जे
तेषांमास्या यनायैतत् दीयते सलिलं मया’
एहि ठाम चर्च कऽ देब आवश्यक बूझि पड़ैत अछि जे जीव मात्रमे एके तत्त्व होयब किंवा ‘पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ केर अवधारणाकेँ सहजतासँ बूझल जा सकैत अछि। चिन्तक लोकनि एकरा फड़िच्छ केने छथि। जीव निर्माणक क्रम   रस-रक्त-मेदा-मांस-अस्थि-शुक्र केर क्रममे मानल जाइत अछि। जँ कोनो पशु मरि गेल तँ ओकरा माटि तर गाड़ि दल जाइत अछि। कालान्तरमे ओहिपर दूभि चतरि-पसरि जाइत अछि जे माटिक तरमे गाड़ल पशुक शरीरसँ अवश्ये रस ग्रहण करैत होयत। ओहि दूभिकेँ गाय चरि लैत अछि। तकर दूध खा मनुष्यक शरीरमे रक्तसँ लऽ शुक्र धरिक निर्माण होइत अछि आ ताहिसँ सन्तानक। जँ ई सत्य तँ जीव मात्रमे एके तत्त्व हेबाक उद्घोष सेहो सत्य। से तर्पणमे एकरा ध्यान राखल गेल अछि। से तते गम्भीरतासँ जे तर्पणक बादो जँ क्यौ छुटला तँ हुनका तीतल वस्त्र गारबासँ बहार होबऽ पानि अर्पित कऽ देल जाइ छनि-
‘येतास्कम् कुले जाता अपुत्रा गोत्रिनो मृता:
ते तृप्यन्तु मयातत्तं वस्त्रानिष्पीडनोदकम्’

मातृ पक्षक सेहो ध्यान
तर्पणमे मात्र पुरुषे पितरक ध्यान नञि राखल जाइत अछि। एहिमे मातृ पक्षक दिवंगता लोकनिक तृप्तिक सेहो ओतबे ध्यान राखल जाइत अछि जतबा पुरुष पितरक। तेँ जलदान करैत हुनको लेल कामना कयल जाइत अछि-
‘अब्रह्मस्तम्ब पर्यन्तम ते वर्षिपितृ मानवा:
तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय:’
एतबे नञि पितृ पक्षक क्रममे आबऽवला नवमी तिथिकेँ ‘मातृ नवमी’ केर संज्ञा देल गेल अछि जाहि दिन दिवंगता महिला पितराइन लेल महिलेकेँ भोजन करायल जाइत अछि।
महिलो करै छथि तर्पण
सगरो विश्वमे महिलाकेँ सभ अधिकार देबाक लेल अनघोल होइत रहैत अछि। मिथिला ओ भूमि अछि जे महिलाकेँ ओ अधिकार अदौसँ देने अछि जे अन्यत्र प्राय: नञि होयत। ओ अछि ‘तर्पणक अधिकार’ जे अद्यापि देखल जा सकैत अछि। महिला लोकनि जितिया (जिमूतवाहन) व्रत करै छथि आ एहि अवसरपर ओ पितराइन, अर्थात अपन सासु, माय आदिकेँ तेल-खरिक संग जल अर्पित करै छथि। जाहि दिन उपास करै छथि ताहि दिन स्नान करबा काल तितले वस्त्र पहिरि ई क्रिया होइत अछि। तर्पणक ई विधान महिलाकेँ पुरुषक बरोबरी दैत अछि।
घर-घरायन होइछ समवेत
तर्पण तँ घरक वरिष्ठे करै छथि, मुदा पितरकेँ स्मरण करबामे घर-घरायन लालग रहै छथि। जिनकर पिता जीवित छथिन किंवा कम वयसक छथि आ हुनका तर्पण नञि करबा छनि तेँ की, ओ पन्द्रह दिनक पितृपक्षमे ओहि सभ तिथिकेँ व्यवस्थामे सक्रिय सहभागिता दै छथि जहिया पिता-माता, बाबा-दादी आदिक दिवंगत हेबाक तिथि रहै छनि। ओना तँ सालमे एक बेर पिता-माता आदिक बरखी केर विधान अछि आ एहि हिसाबसँ कर्म सेहो होइत अछि, मुदा जँ कोनो कारणेँ धोखा-धाखी छूटि गेल तँ पितृपक्षमे आबऽ वला ओहि तिथिकेँ कर्म होइत अछि जाहि तिथिमे निधन भेल रहै छनि। बहुत रास लोक बरखी तँ करिते छथि, एहि तिथिमे सेहो कर्म कऽ ब्राह्मण भोजन करबै छथि। आ जखन ई होइछ तँ बूढ़सँ लऽ नेना धरि एहिमे सहभागी होइ छथि।
दीयाबाती दिन बिदा हेता पितर
मान्यता अछि जे पितर यमलोकसँ महालया अर्थात पितृपक्षपर अबै छथि आ दीयाबाती दिन घुरै छथि जखन परिजन हुनका उल्का भ्रमण करैत बाट देखबै छथि। उल्का भ्रमणक मंत्र यैह कहैत अछि-
‘शस्त्राशस्त्र हतानां च भूतानां भूतदर्शयो:।
उज्ज्वलज्योतिषा देहं निर्दहे व्योमवाहिनना।।
अग्निदग्धाश्च ये जीवा येऽप्यदग्धा: कुले मम।
उज्ज्वलज्ल्योतिषा दग्धास्ते यान्तु परमां गतिम्।।
यमलोकं परित्यज्य आगता ये महालये।
उज्ज्वलज्योजिषा वर्त्म प्रपश्यन्तो व्रजन्तु ते।।’
एमहर जेना-जेना वैज्ञानिक विकास भऽ रहल अछि आ हमरा लोकनि पाश्चात दिस दौड़ि रहल छी तहिना-तहिना पितृ-तर्पण सन शास्त्रीय परम्पराकेँ निरर्थक मानबाक प्रवृत्ति बढ़ल जा रहल अछि। एहि ठाम देल गेल जल पितरकेँ कोना प्राप्त हेतनि, एहिपर तर्क-कुतर्क चलैत रहैत अछि। ठीके एकरा सोझाँ-सोझी लोक देखैत तँ नञि अछि। परम्पराक विपक्षमे तर्क केनिहारक ई कहब जे जकरा प्रत्यक्ष नञि देखता तकरा कोना मानता, ई बात तँ अछि सत्य, मुदा बहुत रास एहन तत्त्व, तथ्य अछि जकरा हमरा लोकनि देखै नञि छी, मुदा मानै तँ छी जेना बसात। हवाकेँ देखै नञि छी, तँ की ओ नञि अछि? भारतीय जनमानस गीताक कथनकेँ मानैत अछि जे आत्माकेँ अजर-अमर-अविनाशी मानैत एहि प्रसंग कहैत अछि-
‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक
न चैनं क्लेदयन्तापो न शोषयति मारुत:’
एकरा कोनो विज्ञान एखन धरि फूसि तँ नञि प्रमाणित कऽ सकल अछि। विज्ञान ‘गॉड पार्टिकल’ धरि पहुँचबाक बात करऽ लागल अछि, माने ओ ‘परमात्मा’ केर अस्तित्व स्वीकारबाक स्थितिमे आबि रहल अछि। तखन आत्माकेँ सहजे स्वीकारि लेत। आ से जहिया होयत तर्पण सन विशाल चिन्तन एकबेर फेर विज्ञानकेँ चमत्कृत करत। भारत राष्टÑक बच्चा-बच्चा गौरवान्वित होयत जे जकरा पाश्चात्य आइ स्वीकारि रहल अछि तकरा हमर पूर्वज हजारो-लाखो बरख पहिनेसँ जनैत-बुझैत रहला।  
सभसँ पैघ बात पितृ-तर्पणसँ आर किछु हो ने हो, एते तँ अवश्ये होइत अछि जे ई मानवीय गुणसँ परिपूर्ण करैत समस्त संसारक प्रति आत्मीयता, बन्धुत्व भाव रखबाक, जीव मात्रसँ प्रेम करबाक, ओकरा लेल सुचिन्तन करबाक अवसर दैत संवेदनशीलता आ सकारात्मकता हमरा हृदयमे भरैत अछि। ई की कम अछि। ई कतहु हाट-बजारमे तँ नहिञे ने बिकाइछ। ई अबैछ सबल सांस्कृतिक परम्परासँ जकर थाती तँ हमरे सभ लग अछि। हमरा लोकनि भने पाश्चात्यक पछिलग्गू भऽ गौरवे अन्हरायल रही सम्पूर्ण विश्व एही थातीक लेल तँ लालायित अछि। 

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