चोरक कथा

- महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ
प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठक
संसारमे जाहि लोककेँ विवेक नञि रहैछ से चोर बनैछ, जकरामे शौर्य नञि से कायर कहबैछ ओ जकरामे उत्साह नञि हो से लोक आलसी भऽ जाइत अछि। जकरामे विवेक रहैत छै तकरामे दया, दान आदिक नीक वृत्ति आबि जाइ छै, मुदा जकरामे विवेक नञि रहै छै तकरामे तँ सभटा अधलाहे वृत्ति (दुर्गुणे) रहै छै। ओ चोरि करऽ लागि जाइत अछि। जकरामे शूरता रहै छै, मुदा विवेक नञि रहै छै ओ निश्चय पाप (अधलाह काज) करऽ लगैत अछि। जेना ‘सरीसृप’ नीक काज करबामे समर्थो छल तैयो चोर भऽ गेल।
उज्जयिनी नगरीमे विक्रमादित्य नामक राजा छला। हुनका एकदिन चोरि देखबाक इच्छा भेलनि तँ ओ भिखारिक वेष धऽ अपने नगरमे कोनो देवालय लग जा बैसला। जखन निशीथ राति भेलै तँ चारिटा चोर आबि कऽ अपनामे विचार करऽ लागल- ई जे घरसँ खेबाक सामग्री आनल अछि से एहिठाम खा दमगर भऽ नगरमे पैसी। विक्रमादित्य बजला- ऐँठ-कुठ हमरा दैत जायब। चोर सभक कान ठाढ़ भेलै, बाजल- रे! तोँ के थिकेँ? राजा कहलनि-हम भिखारि थिकहुँ, भूखेँ आँट छी चलि नञि होइत अछि, तेँ एतऽ पड़ल छी। चोर सभ तर्क केलक जे जखन नगरक बाट-घाटक पता लगा रहल छलहुँ, तखनो एकरा एत्तहि देखने छलियै। पुनि बाजल- रे कल्लर! एखन धरि तोँ एत्तहि किए छेँ? राजा कहलनि- दर्शनार्थी यात्री सभसँ भीख माङऽ एतऽ आयल छलहुँ, भीख नञि भेटल तँ अनतऽ कतऽ जैतहुँ, भूखल तते छी जे एत्तहि पड़ि रहलहुँ। चोर सभ बजल- जँ ऐँठ-कुठ देबौ तँ तोँ हमरा लोकनिक कोन उपकार करबेँ? राजा कहलनि- बड़का-बड़का धनिकक घर देखा देब आ चोराओल वस्तुजातकेँ ऊघि देब। चोर सभ बाजल- बेस तँ, तखन रह, भेटतौ ऐँठ-कुठ। आब चोर सभ खेलक आ विक्रमादित्यकेँ ऐँठ-कुठ देलकनि। ओ ओकरा खप्परमे लऽ बेताल द्वारा फेकबा देलनि आ कहल-वाह! आइ अहाँ लोकनिक प्रसादेँ हम कृतार्थ भऽ गेलहुँ। चोर सभमे ‘सरीसृप’ नामक जे मुखिया चोर छल, से बाजल- हे! हम सगुनशास्त्रकेँ खूब पढ़ने छी तेँ गीदर की बजैत अछि से हम बुझि जाइ छियै। आन चोर सभ बाजल- तँ अकानऽ गीदर की बजैत अछि। सरीसृप कहलक- मित्र लोकनि; सुनै जा, गीदर कहैत छऽ जे ‘तोरा लोकनिमे चारि गोटे चोर छऽ आ एक गोटे राजा।’ आन चोर सभ बरजल- हमरा लोकनि चारू गोटे तँ अपनामे सभकेँ-सभ चिन्हिते छी, तखन ओ पाँचम तँ कल्लर थिक; दिनोमे तँ ओकरा देखनहि छलियै आ देखै छी जे ऐँठो लेलक अछि। तखन राजाक सन्देहे कोन? सरीसृप कहलक- गीदरक कथा तँ फूसि नञि भऽ सकै छै। आन चोर सभ बाजल- जकरा हम रातिमे देखै छी तकरा दिनोमे चीन्हि जाइ छी। तेसर बाजल- जकर घरपर हम हाथ दै छियै तकर घरक धन-सम्पत्ति जानि जाइ छी। चारिम बाजल-सेन्ह मारबाक स्थानने जतेक रेखा कयल जाइत अछि ततेटा सेन्ह बिना आयासे भऽ जाइत अछि। पछाति राजा कहलिन- हमरा आगाँमे क्यौ बान्हल नञि रहैत अछि।
तखन अपनामे गप्प-सप्प कऽ पाँचो गोटा नगरमे पैसला। नगरपति (मुखिया) केर घरमे सेन्ह काटि बहुतरास धन चोरेलनि आ नगरक बाहर आबि, एकटा खाधि खूनि ओहि धनकेँ गाड़ि कऽ राखि देलनि। विक्रमादित्य अपन महल चलि एला। बादमे राजा सभा-भवनमे सभकेँ बजेलनि आ अपने सिंहसनपर जा बैसला। नगरक दण्डाधिकारीकेँ बजा कहलनि आनक भेद लेबा लेल अहाँ नियुक्त छी आ अहाँ रातुक बात किछु नञि बुझै छियै! जाउ पिचिण्डिल सूड़िक (कलालक) ओहिठाम चारिटा चोर दारू पिबैत होयत, ओकरा सभके ँ हथकड़ी लगा पकड़ि लाउ। दण्डाधिकारी प्रणाम कऽ विदा भेला ओ चोर सभकेँ पकड़ि अनलनि। चोरसभकेँ देखि राजा पुछलनि- संगी चोरसभ, की हमरा चिन्है जाइ छऽ? सरीसृप कहलक- हम तँ तखने अपनेकेँ चीन्हि गेलहुँ, मुदा हमर ई संगी लोकनि वज्र मूर्ख छथि। गीदराक कहलकेँ फूसि मानैत गेल। हम की करू? संगी लोकनिक बातपर भसिया गेलहुँ।
ठीके छै नीति जननिहार जँ एकसरे काज करथि तँ ओ सुखी भऽ सकै छथि, मुदा जखने बहुत गोटाक बात मानै छथि तखने हुनक मति भसिआ जाइ छनि।
महाराज! केहनो ने जननिहार रहथु, केहनो ने बुधिआर रहथु आ केहनो ने काजमे चतुर रहथु, मुदा जखने ओ बहुत लोकक विचारक कादोमे जेता तँ ओहिमे फँसबे करता।
राजा पुछलनि- रे चोर सभ! आनक कथापर जे भसिआइत गेलेँ, तकर तँ सोच करै जाइ छेँ, मुदा अपन ज्ञानक दोषेँ जे भसिआइत जाइ छेँ, तकरा किए ने सोचैत जाइ छेँ? चोरसभ कहलक- हमरा लोकनि अपन ज्ञानक दोषेँ कोना भसिआइ छी महाराज? राजा कहलनि- तोरा सभ वीरक वृत्तिसँ निर्वाह कऽ सकै छऽ, तखन जे चोरक वृत्ति धेने छऽ, से तँ साफ-साफ भसिआयबे थिकऽ।
जाहि शूरताक प्रसादात आन लोक एहि भूखण्डमे धन-सम्पत्ति पाबि आनन्दसँ जीवन बितबैत अछि आ पण्डितमण्लीमे सभ प्रकारेँ पुण्य एवं निर्मल यश पबैत अछि, प्रशंसाक साधन ताहि शूरताकेँ रखैत तोरा सभ चोर कहा निन्दित बूझल जाइ छऽ। ओह, केहन दु:खक बात थिक। ठीके दुर्मति छोड़ब बड़ कठिन छै।
चोर सभ बाजल- जी, सत्ते, एहिमे दुर्मतिए अछि महाराज! राजा कहलनि- जँ से मनै जाइ छऽ तँ ओहि दुर्मतिकेँ किए ने छोड़ै जाइ छह? चोर सभ कहलक- महराज! की करू? गरीबी ओकरा छोड़ऽ दैत तखन ने। सत्य कही तँ गरीबिए हमरा लोकनिकेँ पापमे लगबैछ, दु:ख भोगबैछ, चोरि करबैछ, छल-प्रपञ्च सिखबैछ, दीन वचन बजबैछ आ नीचसँ नीचक ओहिठाम भीख मङबैछ। आह! गरीबी हमरा लोकनिसँ की-की ने करबैछ।
राजा कहलनि- अरे! तोरा सभक गरीबी तँ तहिए गेलऽ जहिए हमरासँ मैत्री करैत गेलऽ। मैत्री तँ समानेमे होइछ। तोरा सभक संग मैत्री कऽ जँ हम थोड़बो काल चोर भेलहुँ तँ तोरा सभ हमरा संग मैत्री कऽ राजा किए नञि हेबऽ? तेँ आबो एहि दुर्मतिकेँ छोड़ऽ। चोर सभ कहलक- किए ने छोड़ब महाराज! राजा कहलनि- एखन तँ बेड़ीमे ठोकल छऽ, तोँ सभ की-की ने मानबऽ!
दुष्ट जखन विवश भऽ जाइछ तँ जीहक सुखे कोन दोष नञि छोड़ैछ वा कोन गुण नञि गहैछ?
नञि कोनो क्षति, जँ फेर कुचालि चलबऽ तँ फेर यैह दशा पेबऽ। एतबा कहि राजा नगरपतिकेँ धन देआ देलनि आ चोर सभकेँ छोड़ि देलनि। ओकरा सभमे जे सरीसृप नामक मुखिया चोर छल, तकरा शाल्मलिपुरक राजा बना देलनि आ बहुत रास अशर्फी दऽ आनो चोर सभक गरीबी मेटा देलनि। आब दया आ कुतुहल वश सभकेँ अपन-अपन स्थान जाय लेल कहलनि।
जखन बहुत समय बीति गेलै तँ राजा विचारलनि जे सरीसृप चोरकेँ तँ हम राजा बना देलियै, मुदा ओ राजा भऽ एखन की करैत अछि से बुझबाक चाही। कारण जे-
अबल-दुर्बल जँ बेसी भार उठाबय, मन्दाग्निवला जँ बेसी भोजन करय आ दुर्बुद्धि जँ पैघ राज्यक भार लेअय तँ परिणाम नीक नञि भऽ सकै छै।
ते ँ राजा विक्रमादित्य ‘सुचेतन’ नामक चरकेँ बुझबा लय पठेलनि जे राज पाबि ओ चोर की करैत अछि? चर ओतऽ जा सभ बात बुझलनि आ घुरि एला। राजा पुछलनि- कहू सुचेतन, की समाचार? चर कहलनि- महाराज! की कहबासँ अपनेक नीक होयत आ की कहबासँ अधलाह से हम नञि विचारब। हम सत्ये बात कहब, चरकेँ फूसि बाजब उचित नञि थिक। किएक तँ-
जेना कनाह आँखिसँ जीव किछु नञि देखैछ तहिना फुसिआह चरसँ राजा किछु नञि बुझि सकै छथि।
तेँ हम जे किछु देखल अछि, से निवेदन करै छी। श्रीमान् सुनल जाय-
जे अनकर अधलाह करबामे बहादुर अछि तेहन दुर्जनकेँ राज्य दऽ अपने बहुत गोटाकेँ विपत्ति देलहुँ अछि। पहिनहुँ तँ ओ दुर्वृत्ती छले, ताहिपरसँ अपने ओकरा समर्थ बना देलियै अछि। दुर्वृत्ती आ समर्थ भऽ आब तँ ओ की (अनर्थ) नञि करत? श्रीमान् तँ महात्मा छी, दयासँ मन द्रवित भेल, मुदा अपनहुँ तँ ओकर दुर्गतिए हटेलियै, स्वभाव कहाँ हटेलियै?
राज्यक फल थिकै यश, पुण्य आ सुख। जखन ओ फल ओकरा भेटिते ने छै, तखन राज्ये भेलासँ की? ओ नीक लोकक धन छीनि लैत अछि आ प्रतिष्ठित लोकक मानमर्दन करैछ। अपन सुविधा लेल दुजन कोन काज नजि करैछ?
ओ आनक स्त्रीक संग भोग-विलास करैत अछि आ बुझैत अछि जे कहियो मरबे नञि करब। ओ कामदेवक अस्त्रकेँ देखैत तँ अछि, मुदा यमराजक अस्त्रकेँ नञि देखैछ। ओकरा पापक डर नञि होइ छै, अधलाह काजक लाज नञि होइ छै आ अनकर धनसँ सन्तोष नञि होेइ छै। दुर्जनकेँ मात्सर्ये कोन? ओ अपने बजितो अछि जे चोरिए करैत-करैत हम राजा भेलहुँ अछि, तखन जाहिसँ अपन नीक भेल अछि, ताहि वृत्तिकेँ किए छोड़ब? अपने उदाहरणसँ ओ दृढ़ मानि लेलक अछि जे दुर्वृत्तिए करबासँ राज्य होइ छै। तेँ ओ दुर्वृत्तिकेँ छोड़िते नञि अछि।
दुर्जनके ँ विवेक नञि रहैछ, तेँ ओकरा राज्य शोभा नञि दैछ, चाहे ओ राज्य हाथीक हल्कासँ ने भरल हो आ शतशत रमणीसँ ने भरल हो। चोर जतऽ शासन कऽ रहल अछि, ततऽ की नञि हेतै? ओतऽ तँ शिवोत्तरो अग्राह्य नञि छै, बाह्मणो अवध्य नञि अछि आ मुनियोक सम्मान नञि होइ छनि।
ओ अपन कयल काजकेँ अपने नाश कऽ दैत अछि। लोभी लोक अपन कयलपर डटल कहाँ रहि सकैत अछि?
राजा बजला- सुचेतन! अहाँक एहि वर्णनसँ ओहि दुष्टक चरित्र बुझलहुँ। हमरा बड़ दु:ख भऽ रहल अछि। हम तँ एकरा अपने अयश मानै छी। चर कहल- अपनहिक अयश थिक महाराज! लोकसभ साफ-साफ बजैत अछि जे-
ओ लाज तँ राजा विक्रमादित्यकेँ थिकनि, चोरकेँ तँ ओ यशे थिकै जे दुनू गोट (राजा ओ चोर) एक थिका।
नीच लोककेँ सिक्का चढ़ेबासँ पैघो लोक छोट भऽ जाइछ। चन्द्रमा हरिणकँे कोड़ चढ़ेलनि, तेँ ने ओ कलंकी कहेलनि!
राजा पुछलनि- आब की करबाक चाही? चर कहल- महाराज। अपनेकेँ ई बड़का अयश छोड़ायब आवश्यक। एखन धरि तँ ओकरा छोड़ायब सोझ अछि। जँ बेसी लोकक मुँहमे अयश पसरल तँ ओकरा छोड़ायब कठिन होयत।
तखन राजा विक्रमादित्य भेष बदलि चोरक राज्य गेला आ चरक कहल बातक जाँच कयलनि। पुनि तखन चोरकँे राजगद्दीसँ उतारि पहिलुकेँ दशा (बन्दी) कऽ मारि देल।
अपराधीकेँ दण्ड देनिहार, राजा विक्रमादित्य सज्जनकेँ पीड़ा देनिहार (सरीसृप) चोरकेँ मारि देलनि। आब नगर शान्त रहओ, वृद्ध पण्डितलोकनि गुणसँ गौरव पाबथु, व्यापारी लोकनि निडर भऽ बाट चलथु, घर-घरमे धनिक सभ सुखसँ सूतथु आ धार्मिक उत्सवमे जागथु।
No comments:
Post a Comment