Sunday, 22 September 2013

पितृ तर्पण सन चिन्तन बनेलक राष्टÑकेँ विश्वगुरु

 
              पितृ तर्पण सन चिन्तन बनेलक राष्टÑकेँ विश्वगुरु 

                                                                  - अमलेन्दु शेखर पाठक 
आसिन मास अबिते पाबनि-तिहारक हूलिमालि आरम्भ भऽ गेल अछि। एही मास शक्तिक अधिष्ठात्री भगवती दुर्गाक पूजा-अर्चनामे जनमानस डूबि जायत। भक्तिक कलकल प्रवाहमे डुब्बी देबा लेल सभ उताहुल हेता। ओना तँ भारतीय चिन्तन परम्परामे प्रतिदिन कोनो ने कोनो पाबनि होइते अछि, मुदा दुर्गापूजा सन पाबनि-तिहार जाहिमे समाज समवेत भऽ एक सुर-एक राग-एक लयमे आबि जाइत अछि तकर क्रम आसिन अबिते पितृपक्षसँ आरम्भ भऽ जाइत अछि। एकर बाद दुर्गा पूजा, कोजागरा, दीपावली, लक्ष्मी पूजन, काली पूजन, गोवर्द्धन पूजा, भ्रातृद्वितीया, चित्रगुप्त पूजा, छठि आदि बेराबेरी अबैत रहत आ आनन्दक सागरमे हमरा लोकनि उभचुभ करैत रहब।
ई सभ पाबनि अपना अन्तरमे कोनो ने कोनो सन्देश सहेजने अछि। ताहिमे ‘पितृ-तर्पण’ तेहन अछि जे अपन विशाल चिन्तनक आधारपर भारत राष्टÑकेँ विश्व भरिमे विशिष्ट परिचय दैत अछि। एहने सुचिन्तन विश्वगुरुक आसनपर एहि राष्टÑकेँ प्रतिष्ठित केने होयत। कहाँ ओ पाश्चात्य संस्कृति जाहिमे जीवित माता-पितो लेल लोककेँ पलखति नञि रहै छनि। हुनका संग बैसबा-उठबाक आ नीक-बेजाय बतिएबाक बात तँ दूर रहल, अपन ओहि माता-पिताक पालन-पोषण धरि करबाक दायित्वसँ सन्तान छिटकैत अछि जे अपन कोँढ़-करेज खखोरि ओकरापर अर्पित करैत रहला। हुनका ‘ओल्ड हाउस’ मे ठेलि दैत अछि। माता-पिता असगरे अपन तीन-चारि-पाँच सन्तानकेँ पोसैत अछि आ हुनक चारि-चारि पाँच-पाँच सन्तान एक गोट माय-बापकेँ संग नञि राखि नञि राखि पबैत अछि। आ अपना ओहि ठाम, अपना ओहि ठाम जीवित के कहय, दिवंगत पीढ़ी पर्यन्तकेँ मन पाड़ल जाइ छनि। हुनक स्मरण मात्र नञि कयल जाइत अछि, अपितु हुनक तृप्ति केर कामना कयल सेहो कयल जाइ छनि। से ओहि पुरुखा लेल जकरा तर्पण केनिहार देखबो ने केलनि। बहुतसँ बहुत अपन पिता, बाबा, परबाबाकेँ देखने रहै छथि, मुदा पितृपक्षमे अपन सभ पूर्वजकेँ जल-दान करैत हुनका तृप्ति भेटनि तकर अभ्यर्थना करै छथि। से एक-दू दिन नञि, पूरापूरी एक पन्द्रहिया। आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदासँ लऽ पन्द्रह दिन धरि पवित्रता पूर्वक रहै छथि। माछ-मासुसँ परहेज रखै छथि।
अखिल विश्वक कल्याण कामना
पितृ-तर्पणक विधानमे निहित चिन्तन एकरा अखिल विश्वक कल्याण कामनासँ युक्त करैत अछि। विश्वक आन-आन देशमे जतऽ जन्म देनिहारोक चिन्ता नञि कयल जाइत अछि, ओतहि पितृ-तर्पणक विधान सृष्टिक सभ दिवंगतकेँ स्मरण करबाक अवसर दैत अछि। पिताक निधन केर बाद पुत्र द्वारा तर्पणक विधान अछि। जाबत पिता रहै छथि ताबत वैह अपन पितरकेँ तर्पण करैत जल दै छथि। जखन ओहो पितर कोटिमे आबि जाइ छथि, माने गोलोकवासी होइ छथि तँ हुनक स्थान पुत्र लै छथि। हाथमे तिल-कुश लऽ कोनो जलाशयमे ठाढ़ भेल पितरकेँ जलार्पण कऽ हुनका तृप्ति लेल जुटि जाइ छथि। एहि क्रममे जे मंत्र पढ़ल जाइत अछि ओ अपना पुरुखा लेल तँ पढ़िते छथि, ओहि दिवंगत व्यक्तिक तृप्तिक कामना सेहो करै छथि जे हुनक सम्बन्धियो नञि रहलथिन अछि-
‘ये बान्धवाऽबान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा:
ते   सर्वे   तृप्तिमायान्तु   यष्टास्मत्तुऽभिवाञ्छति’
एहि मंत्रमे कतहु ई नञि कहल जाइत अछि जे जलदाता भारत देश मात्रमे जन्म लऽ दिवंगत भेनिहारक तृप्तिक कामना करै छथि। मान्यता अछि जे पुत्र द्वारा देल गेल जलसँ पितर तृप्त होइ छथि, मुदा जिनका पुत्र नञि छनि? घर-परिवारमे आर क्यौ नञि छनि जे हुनका जलदान करता, पत्नी सेहो नञि छथिन तखन? भारतीय चिन्तन हुनको चिन्ता केलक अछि आ तर्पण केनिहार हुनको जल अर्पित करै छथि-
‘ये मे पुने लुप्त पिण्डा पुत्र-दारा विवर्जिता
तेषांहि तत्तमक्षय्यं इदमुस्तु तिलकोदकम’
एतबे नञि, समग्र भुवन भरिक लेल स्पष्ट विधान अछि-
‘अतीत कुल कोटिनां सप्तद्वीप निवासिनां
आब्रह्म भुवनांलोकात् इदमस्तु तिलकोदकम्’
एहि चिन्तनक विशालता तखन आरो बढ़ि जाइत अछि जखन एहिमे मानवे नञि प्राणि मात्रक कल्याणक कामना जुटि जाइत अछि।
साँप पर्यन्तक तृप्तिक अभिलाषा
भारतीय चिन्तन जीव मात्रमे परमात्माक निवास मानैत अछि आ तदनुकूल आचरणो करैत अछि। बरमहल कहल जाइत अछि जे सभ जीव साँप-गोजर, चिड़ै-चुनमुन्नी, चुट्टी-पिपरी सभमे एके आत्माक निवास अछि। अद्वैत वेदान्तक सर्वमान्य सिद्धान्त अछि-
‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मै ना पर:’
अर्थात् ब्रह्म मात्र सत्य थिका, संसार मिथ्या अछि आ जीव ब्रह्मे थिका। एही सिद्धान्तपर आदि गुरु शंकराचार्यक शांकर भाष्य छनि। एहि सिद्धान्तकेँ मात्र वचनेमे समेटि कऽ नञि राखल गेल अछि, अपितु एकरा व्यवहारमे सेहो आनल गेल अछि आ एहि हिसाबे पितृ-तर्पणक क्रममे जीव मात्रक तृप्तिक कामना कयल जाइत अछि। देवता, यक्ष, गन्धर्व, अप्सराक संग साँप, सियार, जल-अकासमे विचरण केनिहार, जीव मात्रक कल्याण-कामना कयल जाइत अछि। आर तँ आर पाप-धर्म जाहिमे क्यौ लिप्त रहल होथि ई अवसर सभक सुचिन्तन लेल प्रेरित करैत अछि-
‘देवा: यक्षा: तथा नागा गन्धर्वो अप्सरागणा:
क्रूरा सर्पा: सुपर्णाश्च सर्वो जम्बको खगा:
विद्याधार जलधारा तथैवाकाशगामिन:
निराधाराश्च जे जीवा: पापे-धर्मे रताश्च जे
तेषांमास्या यनायैतत् दीयते सलिलं मया’
एहि ठाम चर्च कऽ देब आवश्यक बूझि पड़ैत अछि जे जीव मात्रमे एके तत्त्व होयब किंवा ‘पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ केर अवधारणाकेँ सहजतासँ बूझल जा सकैत अछि। चिन्तक लोकनि एकरा फड़िच्छ केने छथि। जीव निर्माणक क्रम   रस-रक्त-मेदा-मांस-अस्थि-शुक्र केर क्रममे मानल जाइत अछि। जँ कोनो पशु मरि गेल तँ ओकरा माटि तर गाड़ि दल जाइत अछि। कालान्तरमे ओहिपर दूभि चतरि-पसरि जाइत अछि जे माटिक तरमे गाड़ल पशुक शरीरसँ अवश्ये रस ग्रहण करैत होयत। ओहि दूभिकेँ गाय चरि लैत अछि। तकर दूध खा मनुष्यक शरीरमे रक्तसँ लऽ शुक्र धरिक निर्माण होइत अछि आ ताहिसँ सन्तानक। जँ ई सत्य तँ जीव मात्रमे एके तत्त्व हेबाक उद्घोष सेहो सत्य। से तर्पणमे एकरा ध्यान राखल गेल अछि। से तते गम्भीरतासँ जे तर्पणक बादो जँ क्यौ छुटला तँ हुनका तीतल वस्त्र गारबासँ बहार होबऽ पानि अर्पित कऽ देल जाइ छनि-
‘येतास्कम् कुले जाता अपुत्रा गोत्रिनो मृता:
ते तृप्यन्तु मयातत्तं वस्त्रानिष्पीडनोदकम्’

मातृ पक्षक सेहो ध्यान
तर्पणमे मात्र पुरुषे पितरक ध्यान नञि राखल जाइत अछि। एहिमे मातृ पक्षक दिवंगता लोकनिक तृप्तिक सेहो ओतबे ध्यान राखल जाइत अछि जतबा पुरुष पितरक। तेँ जलदान करैत हुनको लेल कामना कयल जाइत अछि-
‘अब्रह्मस्तम्ब पर्यन्तम ते वर्षिपितृ मानवा:
तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय:’
एतबे नञि पितृ पक्षक क्रममे आबऽवला नवमी तिथिकेँ ‘मातृ नवमी’ केर संज्ञा देल गेल अछि जाहि दिन दिवंगता महिला पितराइन लेल महिलेकेँ भोजन करायल जाइत अछि।
महिलो करै छथि तर्पण
सगरो विश्वमे महिलाकेँ सभ अधिकार देबाक लेल अनघोल होइत रहैत अछि। मिथिला ओ भूमि अछि जे महिलाकेँ ओ अधिकार अदौसँ देने अछि जे अन्यत्र प्राय: नञि होयत। ओ अछि ‘तर्पणक अधिकार’ जे अद्यापि देखल जा सकैत अछि। महिला लोकनि जितिया (जिमूतवाहन) व्रत करै छथि आ एहि अवसरपर ओ पितराइन, अर्थात अपन सासु, माय आदिकेँ तेल-खरिक संग जल अर्पित करै छथि। जाहि दिन उपास करै छथि ताहि दिन स्नान करबा काल तितले वस्त्र पहिरि ई क्रिया होइत अछि। तर्पणक ई विधान महिलाकेँ पुरुषक बरोबरी दैत अछि।
घर-घरायन होइछ समवेत
तर्पण तँ घरक वरिष्ठे करै छथि, मुदा पितरकेँ स्मरण करबामे घर-घरायन लालग रहै छथि। जिनकर पिता जीवित छथिन किंवा कम वयसक छथि आ हुनका तर्पण नञि करबा छनि तेँ की, ओ पन्द्रह दिनक पितृपक्षमे ओहि सभ तिथिकेँ व्यवस्थामे सक्रिय सहभागिता दै छथि जहिया पिता-माता, बाबा-दादी आदिक दिवंगत हेबाक तिथि रहै छनि। ओना तँ सालमे एक बेर पिता-माता आदिक बरखी केर विधान अछि आ एहि हिसाबसँ कर्म सेहो होइत अछि, मुदा जँ कोनो कारणेँ धोखा-धाखी छूटि गेल तँ पितृपक्षमे आबऽ वला ओहि तिथिकेँ कर्म होइत अछि जाहि तिथिमे निधन भेल रहै छनि। बहुत रास लोक बरखी तँ करिते छथि, एहि तिथिमे सेहो कर्म कऽ ब्राह्मण भोजन करबै छथि। आ जखन ई होइछ तँ बूढ़सँ लऽ नेना धरि एहिमे सहभागी होइ छथि।
दीयाबाती दिन बिदा हेता पितर
मान्यता अछि जे पितर यमलोकसँ महालया अर्थात पितृपक्षपर अबै छथि आ दीयाबाती दिन घुरै छथि जखन परिजन हुनका उल्का भ्रमण करैत बाट देखबै छथि। उल्का भ्रमणक मंत्र यैह कहैत अछि-
‘शस्त्राशस्त्र हतानां च भूतानां भूतदर्शयो:।
उज्ज्वलज्योतिषा देहं निर्दहे व्योमवाहिनना।।
अग्निदग्धाश्च ये जीवा येऽप्यदग्धा: कुले मम।
उज्ज्वलज्ल्योतिषा दग्धास्ते यान्तु परमां गतिम्।।
यमलोकं परित्यज्य आगता ये महालये।
उज्ज्वलज्योजिषा वर्त्म प्रपश्यन्तो व्रजन्तु ते।।’
एमहर जेना-जेना वैज्ञानिक विकास भऽ रहल अछि आ हमरा लोकनि पाश्चात दिस दौड़ि रहल छी तहिना-तहिना पितृ-तर्पण सन शास्त्रीय परम्पराकेँ निरर्थक मानबाक प्रवृत्ति बढ़ल जा रहल अछि। एहि ठाम देल गेल जल पितरकेँ कोना प्राप्त हेतनि, एहिपर तर्क-कुतर्क चलैत रहैत अछि। ठीके एकरा सोझाँ-सोझी लोक देखैत तँ नञि अछि। परम्पराक विपक्षमे तर्क केनिहारक ई कहब जे जकरा प्रत्यक्ष नञि देखता तकरा कोना मानता, ई बात तँ अछि सत्य, मुदा बहुत रास एहन तत्त्व, तथ्य अछि जकरा हमरा लोकनि देखै नञि छी, मुदा मानै तँ छी जेना बसात। हवाकेँ देखै नञि छी, तँ की ओ नञि अछि? भारतीय जनमानस गीताक कथनकेँ मानैत अछि जे आत्माकेँ अजर-अमर-अविनाशी मानैत एहि प्रसंग कहैत अछि-
‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक
न चैनं क्लेदयन्तापो न शोषयति मारुत:’
एकरा कोनो विज्ञान एखन धरि फूसि तँ नञि प्रमाणित कऽ सकल अछि। विज्ञान ‘गॉड पार्टिकल’ धरि पहुँचबाक बात करऽ लागल अछि, माने ओ ‘परमात्मा’ केर अस्तित्व स्वीकारबाक स्थितिमे आबि रहल अछि। तखन आत्माकेँ सहजे स्वीकारि लेत। आ से जहिया होयत तर्पण सन विशाल चिन्तन एकबेर फेर विज्ञानकेँ चमत्कृत करत। भारत राष्टÑक बच्चा-बच्चा गौरवान्वित होयत जे जकरा पाश्चात्य आइ स्वीकारि रहल अछि तकरा हमर पूर्वज हजारो-लाखो बरख पहिनेसँ जनैत-बुझैत रहला।  
सभसँ पैघ बात पितृ-तर्पणसँ आर किछु हो ने हो, एते तँ अवश्ये होइत अछि जे ई मानवीय गुणसँ परिपूर्ण करैत समस्त संसारक प्रति आत्मीयता, बन्धुत्व भाव रखबाक, जीव मात्रसँ प्रेम करबाक, ओकरा लेल सुचिन्तन करबाक अवसर दैत संवेदनशीलता आ सकारात्मकता हमरा हृदयमे भरैत अछि। ई की कम अछि। ई कतहु हाट-बजारमे तँ नहिञे ने बिकाइछ। ई अबैछ सबल सांस्कृतिक परम्परासँ जकर थाती तँ हमरे सभ लग अछि। हमरा लोकनि भने पाश्चात्यक पछिलग्गू भऽ गौरवे अन्हरायल रही सम्पूर्ण विश्व एही थातीक लेल तँ लालायित अछि। 

गोनू झा लेलनि बदला


                                       गोनू झा लेलनि बदला

                                                              - अमलेन्दु शेखर पाठक 

गोनू झा केर उन्नतिसँ हुनकर कतेको टोलबैया डाह रखै छल। ओ सभ सदिखन चाहथि जे कोनो तरहेँ गोनू झाकेँ क्षति होनि। खुरलुच्ची धियापुताकेँ सिखा गोनू झाकेँ किछु ने किछु नोकसान करा देथि। एक बेर गोनू झाकेँ खूब धान उपजलनि। धान कटबा खरिहानमे रखबेलनि। दुष्ट प्रवृत्ति वला सभ एक गोट नढ़ेर नेनाकेँ टाका देबाक लोभ दऽ सिखा देलनि। ओ रातिमे चुपेचाप गेल आ गोनू झाक खरिहानमे आगि लगा देलक। देखिते-देखिते सौँसे खरिहार छाउरे-छाउर भऽ गेल। गोनू झा अपन समाङ आ टोलक हितचिन्तक सभक संग आगि मिझेबाक प्रयास केलनि, मुदा किए एको दाना बचतनि? डाह रखनिहार सभ प्रसन्न भऽ गेल। गोनू झा मने मन सभ बातक अनुमान करै छला। हुनका सन्देह छलनि जे क्यौ जानि कऽ आगि लगबेलक। घर एला तँ पत्नी पेटकान देने रहथिन। हुनका बुझा-सुझा शान्त केलनि। आ लगला खेधा करऽ जे के आगि लगेलक आ किए लगेलक?
नढ़ेर आगि तँ लगा देलक, मुदा धान जरैत देखि ओ पछताय लागल। ओकरा गोनू काका सन नीक लोकक धान जरेबाक अपराधा बोध होइ छलै। जखन बर्दास्त नञि भेलै तँ आबि गोनू झाक पैर पकड़ि माफी मङैत सभटा बात कहि देलकनि। गोनू झा ओकरा माफ करैत कहलथिन जे ई बात ओ ककरो लग नञि बाजय।
गोनू झा सोचलनि जे एकर बदला लेल जाय। बस अगिले दिन खरिहार पहुँचला आ बरद गाड़ीपर सभटा राख लदबेलनि आ बिदा भऽ गेला पेठिया। राख उठबैत देखि दुष्ट सभ सोचलक जे धान जरि जेबासँ हिनकर दिमाग खराब भऽ गेलनि अछि, मुदा साँझमे जखन गोनू झा हँसैत-गबैत भरल गाड़ी लऽ घुरला तँ सभ चौँकि गेल। टोलबैया सभ गोनू झासँ पुछलथिन जे राख लऽ गेल रही आ प्रसन्न भऽ घुरलहँु, की बात छै? गोनू झा बिहुँसैत जवाब देलथिन- अरे, धान जारि हमर उपकार भेल तेँ प्रसन्न छी। सभकेँ आश्चर्य भेलनि, ई की कहि रहल छथि? गोनू झा कहलथिन जे काल्हिए अखबारमे पढ़ने रही जे धानक शीशकेँ डाहि असाध्य रोग छोड़ेबाक दबाइ बनै छै। से सभटा राख समेटि पेठियापर गेल रही। बेपारी सभ हाथो हाथ कीनि लेलक। ओ तँ आरो मङै छल, मुदा हमरा तँ आब धाने नञि अछि जे डाहब। वैह सभ बड्ड पाइ देलक तँ एक गाड़ी सोना-चानी कीनि कऽ घुरलहुँ अछि। गोनू झा अपन हित चिन्तक सभकेँ आँखिए आँखिमे इशारा कऽ देने छलथिन, से ओ सभ तँ बूझि गेला जे गोनू झा कोनो चालि चलि रहला अछि, मुदा दुष्ट सभ नञि बुझलक। ओ सभ गोनू झासँ खोधि-खोधि कऽ बेपारी आ कोन पेठियापर राख बिकायत से पुछलनि। अगिले दिन ओ सभ अपन-अपन खरिहान डाहि पेठिया बिदा भेला। पेठिया पहुँचला आ सभ बेपारीसँ राख किनबा लेल कहथि। सभ हिनका सभकेँ बताह बूझि हँसि कऽ चलि जाय। साँझमे ओ सभ माथ नोचैत गाम घूरल तँ देखैत अछि जे गोनू झा अपना खेतमे राख छिटबा रहल छथि। मुँह बिधुएने घूरल दुष्ट टोलबैया सभकेँ देखि गोनू झा पुछलनि- नञि भेटल बेपारी? की करबै चलि गेल हेतै। राख सभ खेतमे छीटि लीयऽ अगिला साल नीक उपजा होयत?
भेल छल ई जे गोनू झा राख लऽ गेला आ गामसँ बाहर भरि दिन बिता साँझमे घुरि आयल छला। जखन दोसर दिन गोनू झा दरबार गेला तँ महाराज पछिला दिन नञि एबाक कारण पुछलथिन। गोनू झा सभटा खेरहा कहलनि तँ महाराज प्रसन्न होइत हुनका सय बरद गाड़ी धान गामपर पठबा देलथिन आ इनामो देलथिन। दुष्ट सभकेँ पकड़बा जहल दै छलथिन, मुदा गोनू झा बचा लेलथिन जे बदला तँ ओ लैए चुकल छथि। दुष्ट सभ कान पकड़लक जे फेर गोनू झाक संग अरारि नञि मोल लेता। 

चोरक कथा - महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ


                                                                                       चोरक कथा


               - महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ 

                         प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठक 

संसारमे जाहि लोककेँ विवेक नञि रहैछ से चोर बनैछ, जकरामे शौर्य नञि से कायर कहबैछ ओ जकरामे उत्साह नञि हो से लोक आलसी भऽ जाइत अछि। जकरामे विवेक रहैत छै तकरामे दया, दान आदिक नीक वृत्ति आबि जाइ छै, मुदा जकरामे विवेक नञि रहै छै तकरामे तँ सभटा अधलाहे वृत्ति (दुर्गुणे) रहै छै। ओ चोरि करऽ लागि जाइत अछि। जकरामे शूरता रहै छै, मुदा विवेक नञि रहै छै ओ निश्चय पाप (अधलाह काज) करऽ लगैत अछि। जेना ‘सरीसृप’ नीक काज करबामे समर्थो छल तैयो चोर भऽ गेल।
उज्जयिनी नगरीमे विक्रमादित्य नामक राजा छला। हुनका एकदिन चोरि देखबाक इच्छा भेलनि तँ ओ भिखारिक वेष धऽ अपने नगरमे कोनो देवालय लग जा बैसला। जखन निशीथ राति भेलै तँ चारिटा चोर आबि कऽ अपनामे विचार करऽ लागल- ई जे घरसँ खेबाक सामग्री आनल अछि से एहिठाम खा दमगर भऽ नगरमे पैसी। विक्रमादित्य बजला- ऐँठ-कुठ हमरा दैत जायब। चोर सभक कान ठाढ़ भेलै, बाजल- रे! तोँ के थिकेँ? राजा कहलनि-हम भिखारि थिकहुँ, भूखेँ आँट छी चलि नञि होइत अछि, तेँ एतऽ पड़ल छी। चोर सभ तर्क केलक जे जखन नगरक बाट-घाटक पता लगा रहल छलहुँ, तखनो एकरा एत्तहि देखने छलियै। पुनि बाजल- रे कल्लर! एखन धरि तोँ एत्तहि किए छेँ? राजा कहलनि- दर्शनार्थी यात्री सभसँ भीख माङऽ एतऽ आयल छलहुँ, भीख नञि भेटल तँ अनतऽ कतऽ जैतहुँ, भूखल तते छी जे एत्तहि पड़ि रहलहुँ। चोर सभ बजल- जँ ऐँठ-कुठ देबौ तँ तोँ हमरा लोकनिक कोन उपकार करबेँ? राजा कहलनि- बड़का-बड़का  धनिकक घर देखा देब आ चोराओल वस्तुजातकेँ ऊघि देब। चोर सभ बाजल- बेस तँ, तखन रह, भेटतौ ऐँठ-कुठ। आब चोर सभ खेलक आ विक्रमादित्यकेँ  ऐँठ-कुठ देलकनि। ओ ओकरा खप्परमे लऽ बेताल द्वारा फेकबा देलनि आ कहल-वाह! आइ अहाँ लोकनिक प्रसादेँ हम कृतार्थ भऽ गेलहुँ। चोर सभमे ‘सरीसृप’ नामक जे मुखिया चोर छल, से बाजल- हे! हम सगुनशास्त्रकेँ खूब पढ़ने छी तेँ गीदर की बजैत अछि से हम बुझि जाइ छियै। आन चोर सभ बाजल-   तँ अकानऽ गीदर की बजैत अछि। सरीसृप कहलक- मित्र लोकनि; सुनै जा, गीदर कहैत छऽ जे ‘तोरा लोकनिमे चारि गोटे चोर छऽ आ एक गोटे राजा।’ आन चोर सभ बरजल- हमरा लोकनि चारू गोटे तँ अपनामे सभकेँ-सभ चिन्हिते छी, तखन ओ पाँचम तँ कल्लर थिक; दिनोमे तँ ओकरा देखनहि छलियै आ देखै छी जे ऐँठो लेलक अछि। तखन राजाक सन्देहे कोन? सरीसृप कहलक- गीदरक कथा तँ फूसि नञि भऽ सकै छै। आन चोर सभ बाजल- जकरा हम रातिमे देखै छी तकरा दिनोमे चीन्हि जाइ छी। तेसर बाजल- जकर घरपर हम हाथ दै छियै तकर घरक धन-सम्पत्ति जानि जाइ छी। चारिम बाजल-सेन्ह मारबाक स्थानने जतेक रेखा कयल जाइत अछि ततेटा सेन्ह बिना आयासे भऽ जाइत अछि। पछाति राजा कहलिन- हमरा आगाँमे क्यौ बान्हल नञि रहैत अछि।
तखन अपनामे गप्प-सप्प कऽ पाँचो गोटा नगरमे पैसला। नगरपति (मुखिया) केर घरमे सेन्ह काटि बहुतरास धन चोरेलनि आ नगरक बाहर आबि, एकटा खाधि खूनि ओहि धनकेँ गाड़ि कऽ राखि देलनि। विक्रमादित्य अपन महल चलि एला। बादमे राजा सभा-भवनमे सभकेँ बजेलनि आ अपने सिंहसनपर जा बैसला। नगरक दण्डाधिकारीकेँ बजा कहलनि आनक भेद लेबा लेल अहाँ नियुक्त छी आ अहाँ रातुक बात किछु नञि बुझै छियै! जाउ पिचिण्डिल सूड़िक (कलालक) ओहिठाम चारिटा चोर दारू पिबैत होयत, ओकरा सभके ँ हथकड़ी लगा पकड़ि लाउ। दण्डाधिकारी प्रणाम कऽ विदा भेला ओ चोर सभकेँ पकड़ि अनलनि। चोरसभकेँ देखि राजा पुछलनि- संगी चोरसभ, की हमरा चिन्है जाइ छऽ? सरीसृप कहलक-  हम तँ तखने अपनेकेँ चीन्हि गेलहुँ, मुदा हमर ई संगी लोकनि वज्र मूर्ख छथि। गीदराक कहलकेँ फूसि मानैत गेल। हम की करू? संगी लोकनिक बातपर भसिया गेलहुँ।
ठीके छै नीति जननिहार जँ एकसरे काज करथि तँ ओ सुखी भऽ सकै छथि, मुदा जखने बहुत गोटाक बात मानै छथि तखने हुनक मति भसिआ जाइ छनि।
महाराज! केहनो ने जननिहार रहथु, केहनो ने बुधिआर रहथु आ केहनो ने काजमे चतुर रहथु, मुदा जखने ओ बहुत लोकक विचारक कादोमे जेता तँ ओहिमे फँसबे करता।
राजा पुछलनि- रे चोर सभ! आनक कथापर जे भसिआइत गेलेँ, तकर तँ सोच करै जाइ छेँ, मुदा अपन ज्ञानक दोषेँ जे भसिआइत जाइ छेँ, तकरा किए ने सोचैत जाइ छेँ? चोरसभ कहलक- हमरा लोकनि अपन ज्ञानक दोषेँ कोना भसिआइ छी महाराज? राजा कहलनि- तोरा सभ वीरक वृत्तिसँ निर्वाह कऽ सकै छऽ, तखन जे चोरक वृत्ति धेने छऽ, से तँ साफ-साफ भसिआयबे थिकऽ।
जाहि शूरताक प्रसादात आन लोक एहि भूखण्डमे धन-सम्पत्ति पाबि आनन्दसँ जीवन बितबैत अछि आ पण्डितमण्लीमे सभ प्रकारेँ पुण्य एवं निर्मल यश पबैत अछि, प्रशंसाक साधन ताहि शूरताकेँ रखैत तोरा सभ चोर कहा निन्दित बूझल जाइ छऽ। ओह, केहन दु:खक बात थिक। ठीके दुर्मति छोड़ब बड़ कठिन छै।
चोर सभ बाजल- जी, सत्ते, एहिमे दुर्मतिए अछि महाराज! राजा कहलनि- जँ से मनै जाइ छऽ तँ ओहि दुर्मतिकेँ किए ने छोड़ै जाइ छह? चोर सभ कहलक- महराज! की करू? गरीबी ओकरा छोड़ऽ दैत तखन ने। सत्य कही तँ गरीबिए हमरा लोकनिकेँ पापमे लगबैछ, दु:ख भोगबैछ, चोरि करबैछ, छल-प्रपञ्च सिखबैछ, दीन वचन बजबैछ आ नीचसँ नीचक ओहिठाम भीख मङबैछ। आह!   गरीबी हमरा लोकनिसँ की-की ने करबैछ।
राजा कहलनि- अरे! तोरा सभक गरीबी तँ तहिए गेलऽ जहिए हमरासँ मैत्री करैत गेलऽ। मैत्री तँ समानेमे होइछ। तोरा सभक संग मैत्री कऽ जँ हम थोड़बो काल चोर भेलहुँ तँ तोरा सभ हमरा संग मैत्री कऽ राजा किए नञि हेबऽ? तेँ आबो एहि दुर्मतिकेँ छोड़ऽ। चोर सभ कहलक- किए ने छोड़ब महाराज! राजा कहलनि- एखन तँ बेड़ीमे  ठोकल छऽ, तोँ सभ की-की ने मानबऽ!
दुष्ट जखन विवश भऽ जाइछ तँ जीहक सुखे कोन दोष नञि छोड़ैछ वा कोन गुण नञि गहैछ?
नञि कोनो क्षति, जँ फेर कुचालि चलबऽ तँ फेर यैह दशा पेबऽ। एतबा कहि राजा नगरपतिकेँ धन देआ देलनि आ चोर सभकेँ छोड़ि देलनि। ओकरा सभमे जे सरीसृप नामक मुखिया चोर छल, तकरा शाल्मलिपुरक राजा बना देलनि आ बहुत रास अशर्फी दऽ आनो चोर सभक गरीबी मेटा देलनि। आब दया आ कुतुहल वश सभकेँ अपन-अपन स्थान जाय लेल कहलनि।
जखन बहुत समय बीति गेलै तँ राजा विचारलनि जे सरीसृप चोरकेँ तँ हम राजा बना देलियै, मुदा ओ राजा भऽ एखन की करैत अछि से बुझबाक चाही। कारण जे-
अबल-दुर्बल जँ बेसी भार उठाबय, मन्दाग्निवला जँ बेसी भोजन करय आ दुर्बुद्धि जँ पैघ राज्यक भार लेअय तँ परिणाम नीक नञि भऽ सकै छै।
ते ँ राजा विक्रमादित्य ‘सुचेतन’ नामक चरकेँ बुझबा लय पठेलनि जे राज पाबि ओ चोर की करैत अछि? चर ओतऽ जा सभ बात बुझलनि आ घुरि एला। राजा पुछलनि- कहू सुचेतन, की समाचार? चर कहलनि- महाराज! की कहबासँ अपनेक नीक होयत आ की कहबासँ अधलाह से हम नञि विचारब। हम सत्ये बात कहब, चरकेँ फूसि बाजब उचित नञि थिक। किएक तँ-
जेना कनाह आँखिसँ जीव किछु नञि देखैछ तहिना फुसिआह चरसँ राजा किछु नञि बुझि सकै छथि।
तेँ हम जे किछु देखल अछि, से निवेदन करै छी। श्रीमान् सुनल जाय-
जे अनकर अधलाह करबामे बहादुर अछि तेहन दुर्जनकेँ राज्य दऽ अपने बहुत गोटाकेँ विपत्ति देलहुँ अछि। पहिनहुँ तँ ओ दुर्वृत्ती छले, ताहिपरसँ अपने ओकरा समर्थ बना देलियै अछि। दुर्वृत्ती आ समर्थ भऽ आब तँ ओ की (अनर्थ) नञि करत? श्रीमान् तँ महात्मा छी, दयासँ मन द्रवित भेल, मुदा अपनहुँ तँ ओकर दुर्गतिए हटेलियै, स्वभाव कहाँ हटेलियै?
राज्यक फल थिकै यश, पुण्य आ सुख। जखन ओ फल ओकरा भेटिते ने छै, तखन राज्ये भेलासँ की? ओ नीक लोकक धन छीनि लैत अछि आ प्रतिष्ठित लोकक मानमर्दन करैछ। अपन सुविधा लेल दुजन कोन काज नजि करैछ?
ओ आनक स्त्रीक संग भोग-विलास करैत अछि आ बुझैत अछि जे कहियो मरबे नञि करब। ओ कामदेवक अस्त्रकेँ देखैत तँ अछि, मुदा यमराजक अस्त्रकेँ नञि देखैछ। ओकरा पापक डर नञि होइ छै, अधलाह काजक लाज नञि होइ छै आ अनकर धनसँ सन्तोष नञि होेइ छै। दुर्जनकेँ मात्सर्ये कोन? ओ अपने बजितो अछि जे चोरिए करैत-करैत हम राजा भेलहुँ अछि, तखन जाहिसँ अपन नीक भेल अछि, ताहि वृत्तिकेँ किए छोड़ब? अपने उदाहरणसँ ओ दृढ़ मानि लेलक अछि जे दुर्वृत्तिए करबासँ राज्य होइ छै। तेँ ओ दुर्वृत्तिकेँ छोड़िते नञि अछि।
दुर्जनके ँ विवेक नञि रहैछ, तेँ ओकरा राज्य शोभा नञि दैछ, चाहे ओ राज्य हाथीक हल्कासँ ने भरल हो आ शतशत रमणीसँ ने भरल हो। चोर जतऽ शासन कऽ रहल अछि, ततऽ की नञि हेतै? ओतऽ तँ शिवोत्तरो अग्राह्य नञि छै, बाह्मणो अवध्य नञि अछि आ मुनियोक सम्मान नञि होइ छनि।
ओ अपन कयल काजकेँ अपने नाश कऽ दैत अछि। लोभी लोक अपन कयलपर डटल कहाँ रहि सकैत अछि?
राजा बजला- सुचेतन! अहाँक एहि वर्णनसँ ओहि दुष्टक चरित्र बुझलहुँ। हमरा बड़ दु:ख भऽ रहल अछि। हम तँ एकरा अपने अयश मानै छी। चर कहल- अपनहिक अयश थिक महाराज! लोकसभ साफ-साफ बजैत अछि जे-
ओ लाज तँ राजा विक्रमादित्यकेँ थिकनि, चोरकेँ तँ ओ यशे थिकै जे दुनू गोट (राजा ओ चोर) एक थिका।
नीच लोककेँ सिक्का चढ़ेबासँ पैघो लोक छोट भऽ जाइछ। चन्द्रमा हरिणकँे कोड़ चढ़ेलनि, तेँ ने ओ कलंकी कहेलनि!
राजा पुछलनि- आब की करबाक चाही? चर कहल- महाराज। अपनेकेँ ई बड़का अयश छोड़ायब आवश्यक। एखन धरि तँ ओकरा छोड़ायब सोझ अछि। जँ बेसी लोकक मुँहमे अयश पसरल तँ ओकरा छोड़ायब कठिन होयत।
तखन राजा विक्रमादित्य भेष बदलि चोरक राज्य गेला आ चरक कहल बातक जाँच कयलनि। पुनि तखन चोरकँे राजगद्दीसँ उतारि पहिलुकेँ दशा (बन्दी) कऽ मारि देल।
अपराधीकेँ दण्ड देनिहार, राजा विक्रमादित्य सज्जनकेँ पीड़ा देनिहार (सरीसृप) चोरकेँ मारि देलनि। आब नगर शान्त रहओ, वृद्ध पण्डितलोकनि गुणसँ गौरव पाबथु, व्यापारी लोकनि निडर भऽ बाट चलथु, घर-घरमे धनिक सभ सुखसँ सूतथु आ धार्मिक उत्सवमे जागथु।

Sunday, 15 September 2013

नैतिकतासँ परिपूर्ण हो जनमानस

 
             नैतिकतासँ परिपूर्ण हो जनमानस 


                                                 - अमलेन्दु शेखर पाठक 
दिल्लीक फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा चारि गोट दुष्कर्मीकेँ फाँसीक सजाय सुनाओल जाइते सौँसे देशक संवेदना एक संग उजागर भऽ गेल। बेसी ठाम कहल गेल जे ई ऐतिहासिक निर्णय अछि। ईहो कहल गेल जे एहि सजायसँ दुष्कर्मक घटना कम होयत। आइसँ लगभग नओ मास पूर्व 16 दिसम्बर 2012 केँ बसमे एकगोट युवतीक संग भेल सामूहिक दुष्कर्म आ अन्तत: सिंगापुरमे 29 दिसम्बर 2012 केँ पीड़िताक मृत्युक घटना सौँसे देशकेँ उद्वेलित कऽ देने छल। समाजक कोनो एहन वर्ग नञि छल जे उद्वेलित नञि भेल हो। उचिते, एहन हेबाके चाही छल। एहि घटनाक आरोपी सभकेँ मृत्यु-दण्ड भेटबाक स्वागतो हेबाक चाही छल, जे भेल। कोर्टक निर्णयसँ समाजमे कठोर सन्देशो जायत। दुष्कर्मीकेँ एते डर तँ अवश्ये हेतै जे पकड़ल जेबापर मृत्यु-दण्डो भेटि सकैत अछि, मुदा विचारणीय अछि जे की एहीसँ दुष्कर्म सन घृणित काज रुकि जायत? कदापि नञि। मात्र कानून बनेबा भरिसँ काज चलऽ वला नञि अछि। अपना देशमे एहिसँ पहिनो तँ दुष्कर्मीकेँ मृत्यु-दण्ड देल गेल अछि। रंगा-बिल्ला सन राक्षसकेँ आ ओकर दुष्कृत्यकेँ चाहियो कऽ हमरा लोकनि बिसरि सकै छी? ओकरो मृत्यु-दण्ड देल गेल छल। की तकर बाद घटना रूकल? असलीहतमे ई दिन-प्रतिदिन बढ़ले गेल। दोसर बात अछि, एक घटनामे चारि गोटेकेँ फाँसी देबाक सजाय सुनाओल गेल अछि, जेँ मीडिया एहि दुष्कर्मकेँ जमि कऽ रखलक तेँ ने सगरो देशक नजरि एहिपर छल। देशमे प्रतिदिन एहि तरहक घटना तँ भैए रहल अछि। जाहि समय दिल्ली-दुष्कर्म काण्ड देश-विदेशमे चर्चित छल ताहू समयमे एहि तरहक घटना भऽ रहल छल। थोड़े बीचे तँ जेना ई व्याधिक रूप पकड़ि नेने छल। संक्रामक रोग जकाँ। चारू भरसँ एही तरहक समाचार आबि रहल छल। की हमरा लोकनिक संवेदना ओहि सभ बच्ची, किशोरी, युवती आ विवाहिता लोकनिसँ नञि जुड़बाक चाही जे दुष्कर्म सन यातना भोगलनि? हुनका सभक प्रति हमरा लोकनिक संवेदनशील किए ने भेलहुँ। एखनो समाचार पत्रमे नित्य कतहु ने कतहुसँ एहि तरहक घटना सोझाँ आबिए रहल अछि। आर तँ आर परिजन पर्यन्त द्वारा दुष्कर्मक घटना भऽ रहल अछि। कहल जाइत अछि जे देशमे जते दुष्कर्मक घटना होइत अछि ताहिमेसँ अधिकांश सोझाँ नञि अबैत अछि। जँ ओहो सभ सोझाँ आबय तखन केहन भयावह स्थिति होयत? दुष्कर्मक एहन पीड़िता सभकेँ कहिया न्याय भेटतनि? भेटबो करतनि की? हुनका सभकेँ न्याय भेटनि ताहि लेल हमरा लोकनि किए ने किछु करै छी? की मीडिया जाहि-जाहि घटनाकेँ उठायत ततबेसँ हमरा लोकनि सरोकार राखब? एहन बहुत रास प्रश्न अछि जे आइएसँ नञि बरखो-बरखसँ अनुत्तरित अछि। तहिना अनुत्तरित अछि जे एहि तरहक घटनाक स्थायी सामाधान लेल किए ने ठोस डेग उठाओल जाइत अछि? रोगक बदला रोगीक उपचार करबा दिस हमरा लोकनि किए अपनाकेँ केन्द्रित केने छी?
स्थायी निदान नैतिक शिक्षा
दुष्कर्मक घटनापर रोक लेल कानून बनाओल जा रहल अछि, मुदा कानून बनेबे भरिसँ काज चलऽ वला रहैत तँ देश भ्रष्टचारमे आकण्ठ नञि डूबल रहैत। दहेज प्रथाक कहिया ने सराध भऽ गेल रहितै। दहेज लेल कोनो नव विवाहिताकेँ जिबिते नञि डाहल जाइत। एहन बहुत रास उदाहरण देल जा सकैत अछि जाहि लेल कानून बनल अछि, कठोर सजायक प्रावधान अछि, तथापि एकर स्थायी निदान नञि भऽ रहल अछि। प्रयोजन अछि समाजकेँ सद्मार्गपर लऽ जेबा लेल रोगक उपचार कयल जेबाक। एखन रोगीक उपचार करबामे हम सभ जुटल छी आ एहीसँ सन्तुष्ट भऽ रहल छी। बूझि रहल छी जे एकरा समाप्त कऽ देल। दुष्कर्मक घटनामे चारि गोटेकेँ फाँसकी सजाय भेटबाकेँ आ महिलाक संग आपराधिक घटना लेल कानून बना जँ यैह बुझै छी तँ हमरा लोकनि अपनाकेँ फुसिया रहल छी। बात पुरनायत आ आयल-गेल भऽ जायत। जँ एहि तरहक रोगक चिकित्साक स्थायी समाधान चाहै छी तँ एहि लेल रोगक ओहि कारणकेँ ताकऽ पड़त जे मूलमे अछि। से अछि नैतिक पतन। कहियो कोनो कार्यालयमे काज हेबापर जँ कर्मीकेँ दस-बीस टाका क्यौ देबऽ चाहै छला तँ ओ हाथ जोड़ि लै छल आ कहै छल ‘नञि-नञि एना नञि करू, बाल-बच्चा वला छी, घूस-पेंच लेब तँ बाल-बच्चापर पड़ि जायत’, माने नैतिकता ओकरा ओ राशि लेबासँ रोकै छल। आइ परिस्थिति सर्वथा उनटि गेल अछि, आइ ओही कार्यालयक कर्मी कहैत अछि ‘किछु दियौ बाल-बच्चा वला छियै, कहाँसँ पढ़ेबे-लिखेबै, सुदुक दरमाहासँ काज नञि ने चलै छै महगीमे।’ नेनपनेसँ रटायल जाइ छल-
मातृवत    परदारेषु    परद्रव्येषु  लोष्ठवत।
आत्मवत सर्वभूतेषु य: पश्यति स: पण्डित:।।
अर्थात् दोसराक स्त्रीकेँ माताक समान, दोसराक धनकेँ ढेपा सन आ अपने सन सभकेँ देखनिहार पण्डित थिका।
तहिना-
अष्टादश पुराणेषु  व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।।
अर्थात् अठारहो पुराणमे व्यासक दुइए टा वचन छनि जे दोसराक उपकार करब पुण्य थिक आ दोसराकेँ पीड़ा पहुँचायब पाप।
एहि तरहक नीति-वचनक असरि काँच मानसिकतापर होइ छल। जेना-जेना नेनाक बौद्धिक विकास होइ छल तहिना-तहिना नैतिक शिक्षाक स्तरो बढ़ै छल। नैतिकताक पाठ मात्र घोखबा लेल नञि होइ छल नेना-किशोरकेँ ओकरा आत्मसात करबा लेल प्रेरित कयल जाइ छल। आइ हमरा लोकनि एहि बाटकेँ छोड़ि चुकल छी। प्राचीन सभ परिभाषा आ मान्यताकेँ उनटि देबा लेल प्रयासरत छी। कहल जाइ छल-
विद्या ददाति विनयम विनयाद्याति   पात्रताम्।
पात्रत्वात्धनमाप्नोति धनात धर्म: तत: सुखम्।।
अर्थात् विद्या ओ थिक जे विनयशीलता दैछ आ ओहिसँ पात्रता अबैत अछि, पात्रताक संग अर्जित धन लऽ धर्म केने सुख होइत अछि। आजुक सन्दर्भमे जँ एहि परिभाषापर विचार करी तँ सयमे निनानबे गोटे डिग्रीधारी लग विद्या नञि छनि कारण ओ विनयशील नञि छथि। तकर अर्थ भेल जे पात्रताक अभाव सेहो अछि। आ जे पात्र नञि होयत तकरासँ नैतिकताक अपेक्षा कऽ सकै छी की? आब एहि नीति वचन सभक सन्दर्भमे वर्त्तमान समस्याकेँ देखी। की लोक जँ हृदयसँ दोसराक स्त्रीकेँ अपन माय जकाँ मानय तँ दुष्कर्म सन घटना होयत? कदापि नञि। कमसँ कम एहन स्थिति तँ नहिञे ने रहत जेना आइ मानव अपन मूल धर्मकेँ छोड़ि पशु बनि गेल अछि। जे पुण्य-पापक चिन्ता करत से दानवी कृत्य नञि कऽ सकैत अछि। जे आनक धनकेँ ढेपा बूझत से भ्रष्टाचारी भैए ने सकैत अछि। जे विनयशील होयत से घृणित काज कैए ने सकैत अछि। तेँ प्रयोजन अछि नैतिक पतनशीलताक रोगकेँ चीन्हि उपचार कयल जाय जाहिसँ शरीरपर दाग भने रहि जाय, घाव अवश्य छूटि जायत।
संस्कृतक चरणमे चाही शरण
नैतिक पतनशीलतापर विराम लेल संस्कृतक शरणमे देशकेँ लऽ जायब परमावश्यक अछि। कारण संस्कृत एहि नैतिक शिक्षाक अथाह सागर अछि। एही भाषामे भारतक आत्मा बसैत अछि। जते ई उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, पुण्य-पाप, सत्कर्म-दुष्कर्मक प्रसंग मार्ग-दर्शन करैत अछि तते आन कोनो भाषा नञि। भाषाक संग संस्कृति चलैत अछि। संस्कृतक संग भारतक संस्कृति अपन मूल अर्थमे चलैत अछि। एकर प्रचार-प्रसार सकल समस्याक निदान कऽ सकैत अछि, मुदा दुर्भाग्यसँ वर्त्तमान ओहि संस्कृतकेँ लतिएने-कतिएने अछि जे वैज्ञानिक विकासक आधार बनि रहल अछि, जे कर्म ज्ञान दैत अछि, जे सिखबैत अछि जे धन महत्वपूर्ण अछि, मुदा ओहूसँ महत्वपूर्ण अछि मानव जीवन, जे पढ़बैत अछि जे भौतिक सुख क्षणभंगुर अछि, जे बाट देखबैत अछि जे नित्य दिस बढ़ू अनित्य दिस नञि, मुदा जेना-जेना कथित विकास भऽ रहल अछि तहिना-तहिना वर्त्तमान संस्कृत दिससँ मुँह मोड़ि रहल अछि। जाहि भाषाक बलपर भारतकेँ विश्व गुरुक सिंहासन भेटल से उपेक्षित अछि। जाहि गुण-गरिमा लेल भारत विश्वमे जानल-चीन्हल जाइत रहल अछि तकर मूल संस्कृतेमे अछि, मुदा पाश्चात्यक प्रति आकर्षणक कारणेँ संस्कृतमे वर्णित तथ्य खिस्सा-पिहानी लगैत अछि आ पाश्चात्य जखन ‘गाड पार्टिकल’ तकबाक बात करैत अछि तँ ओहिपर विश्वास होइत अछि, जखन कि संस्कृत आरम्भेसँ एकर उद्घोष करैत रहल अछि। की अपन स्वर्णिम अतीतपर अविश्वास करब, ओकरा अनुपयोगी बुझबे विकास थिक?
यैह थिक विकास?
विकासक सन्दर्भमे विचार करै छी तँ मन पड़ैत अछि एक गोट पत्रकार मित्रक कथन। एक बेर एक गोट पत्रकार मित्र दरभंगा आयल छला। ओ कहलनि जे किछु छात्रा सभसँ बात कऽ रिपोट बनाउ। हुनकर सभक फोटो सेहो लऽ लेब। दोसर दिन पुछलनि तँ कहलियनि जे छात्रा सभ ओहि विषयपर बातो करबा लेल तैयार नञि भेली। फोटो तँ एकदम्मे ने घिचेलनि। पत्रकार मित्र दुखी होइत कहलनि- ‘एखन ई शहर विकास नञि केलक अछि। हमरा ओहि ठाम चलू छात्रा आ युवती लोकनिकेँ जेना कहबनि तेना फोटो घिचा लेती। एक गोटेकेँ कहबनि तँ समस्या भऽ जायत। तराउपरी होबऽ लागत। अखन दरभंगा सभकेँ विकास करबामे समय लगतै।’ ई कहैत ओ अपन टी शर्टकेँ दुनू बाँहिपर नीचा ससारैत कहने छला- ‘एना फोटो घिचा लेत। जेना कहबै तेना घिचा लेत।’ ओ मुसुकैत अपना संग आयल मित्र दिस तकने छला आ ओहो समर्थन केलनि। हम आश्चर्यचकित रहि गेल रही जे की यैह विकास थिक जाहिसँ दरभंगा वञ्चित अछि? मनमे आयल छल जे जँ यैह विकास अछि तँ भने हमरा सभ पछुआयल छी। ई प्रकरण तँ बानगी भरि अछि। सगरो देशमे देह-यष्टिक प्रदर्शनकेँ विकास बूझल जा रहल अछि। हमरा लोकनि आँखि मूनि पाश्चात्यक अनुकरण कऽ रहल छी। पहिरन-ओढ़न आ विचार पर्यन्तमे। वस्त्रक उपयोग शरीरक झँपबा लेल होइ छल, आइ उनटि गेल अछि। आइ वस्त्रक उपयोग प्रदर्शन लेल होइत अछि। अंग-प्रदर्शन फैशनक नामपर सर्व स्वीकार्य भऽ गेल अछि। से तेना जे कहियो नायिकाक नग्न पीठ केर फोटो टीभीपर आबि जाइ छल तँ एक संग बैसल पैघ आ छोट अपन नजरि दोसर दिस कऽ लै छला जेना ओ देखिए ने रहल होथि, आइ ‘बिकनी गर्ल’ केँ बाप-बेटा, भाइ-बहिन संग-संग देखि रहल छथि। पहिने कहल जाइ छल ‘आप रुचि भोजन पर रुचि सिङार’, आइ पर रुचि भोजन आ आप रुचि सिङार भऽ गेल अछि। एहि ठाम प्रश्न उठि सकैछ जे की महिलाक विकास नञि हेबाक चाही, अवश्य हेबाक चाही, मुदा ओ वास्तविक विकास हो। आचार-विचारक विकास हो। शिक्षाक विकास हो। हुनक मानसिक-बौद्धिक विकास हो। विकासक नामपर महिलाकेँ वस्तु बना देबाक पाश्चात्य मानसिकतासँ हुनक केहन विकास भऽ रहल अछि से सभक सोझाँ अछि। विकासक बोल दऽ हुनका जेना-जेना आगाँ बढ़ेबाक बात भऽ रहल अछि, तहिना-तहिना ओ असुरक्षित भेल जा रहल छथि। हुनकापर सर्वत्र प्रताड़ना भऽ रहल छनि। ‘नारयस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ केर भावना खेलौड़ भऽ गेल अछि। जे विचार देवताक अस्तित्वे ने मानत से नारीक पूजाक बात कोना करत? हमरा लोकनि विकासक नामपर देशकेँ विदेशमे बदलने जा रहल छी तखन तदनुकूलेने परिणाम बहार होयत?
व्यवस्थो बदलय मानसिकता
वर्त्तमान परिवेश लेल सरकारो दोषी अछि। ओ शराबक दोकान धुरझाड़ फोलि लोककेँ शराब पीबासँ होबऽ वला   नोकसानक उपदेश दैत अछि। सिगरेट फैक्ट्रीकेँ लाइसेंस दैत अछि आ ओहिपर ‘स्वास्थ्य लेल हानिकारक’ हेबाक वाक्य लीखबा अपन कर्त्तव्यक इतिश्री कऽ लैत अछि। ई केहन हास्यास्पद अछि जे एचआइवीसँ बचेबा लेल नैतिक रूपसँ युवा पीढ़ीकेँ मजगूत नञि कऽ निशुल्क निरोधक मशीन लगा एहिसँ बचाव केर प्रयास होइत अछि। की सुरक्षित सम्बन्ध लेल ई प्रेरित करब नञि मानल जायत? की एहिसँ नीक ई नञि होइत जे सामाजिक मान्यताक प्रतिकूल आचरण करबासँ रोकबा लेल कोनो ठोस उपाय कयल जाइत? युवा पीढ़ीकेँ नैतिक बलसँ परिपूर्ण कयल जाइत? मुदा ई हो कोना, जखन व्यवस्थो भारतीय परम्परा, संस्कृतिक प्रति रञ्च मात्रो आग्रही नञि रहि गेल हो।
जागऽ पड़त समाजकेँ
सत्य पूछल जाय तँ नैतिकताक पतनपर अंकुश लेल समाजकेँ इमनदारीसँ जागऽ पड़त। जाबत सामाजिक जागरण नञि होयत एहि सभ समस्याक स्थायी समाधान मात्र कानून बनेबासँ कदापि नञि होयत। दुष्कर्मी, भ्रष्टचारी आदि सेहो तँ एही समाजक किनको भाइ, भतीजा वा आन कोनो सम्बन्धी होइ छथि। जँ समाज जागि जाय आ अपन सन्ततिमे नैतिक गुण भरबा लेल संकल्पित हो तँ व्याप्त सकल कुकृत्यक निदान सहजतासँ भऽ सकत। सभ क्षेत्रमे समाजेसँ तँ लोक जाइ छथि। ओ राजनीतिक क्षेत्र हो, प्रशासनिक क्षेत्र हो, व्यावसायिक क्षेत्र हो वा आन कोनो क्षेत्र, सभ ठाम नीक-अधलाह कर्म केनिहार तँ समाजेक क्यौ ने क्यौ होइ छथि। समाज अपन बेटी-धीक चिन्ता करत तखने मानवता गर्वसँ अपन माथ ऊँच कऽ चलि सकत। नञि तँ एहिना माथ झूकल रहत। की झूकल माथ मात्र ओकरे होइत अछि जे कुकृत्य करैत अछि, ओकरा संग ओकर समाजक माथ नञि झुकैत अछि? आउ जागी आ सुन्दर-स्वच्छ समाजक निर्माण लेल बेटा-बेटी दुनूकेँ रटाबी ‘मातृवत परदारेषु....।’

गोनू झासँ भगवती प्रसन्न

 
                                                                       गोनू झासँ भगवती प्रसन्न
                                                 

                                      - अमलेन्दु शेखर पाठक

गोनू झा अपन ज्ञानसँ महाराजकेँ तँ प्रसन्न करिते छला। चोर-चुहारकेँ तँ छकबिते छला। सर-समाजक लोकक लग तँ अपना प्रत्युत्पन्नमतित्वसँ आदरणीय बनले छला, बेर पड़नि तँ देवी-देवताकेँ सेहो तेहन ठोका जवाब देथिन जे ओहो प्रसन्न भऽ उठथि। एक बेर भगवती कालीक समक्ष तेहन मनोरञ्जक प्रश्न रखलनि जे ओहो अपन भक्त गोनू झासँ प्रसन्न भऽ उठली आ हुनका वरदान देलनि जे बुद्धि-ज्ञानमे हुनका कहियो क्यौ ने पछाड़ि सकत।
भेलै जे गोनू झा नित्य भगवतीक पूजा करथि। एक दिन मनमे एलनि जे एते दिनसँ भगवतीक मनसँ विधि पूर्वक पूजा करै छी, मुदा ओ दर्शन नञि देलनि अछि। से आब पूजा तखने छोड़ब जखन ओ दर्शन देती। बस ई ठानि ओ पूजामे जुटि गेला। भरि-भरि दिन कालीक पूजा करऽ लगला। अहल भोरे पूजा शुरू करथि तँ सूर्य डूबि जेबाक बादे उठथि।
एक दिन पूजा-पाठक बाद ओछायनपर पड़ल छला कि हुनक पूजासँ प्रसन्न भऽ भगवती काली दर्शन देबा लेल पहुँचि गेलथिन। काली अपन विकराल स्वरूपमे आयल छली। हुनकर एक सय मुँह छलनि। हाथमे खप्पड़ आ खड्ग रखने छली। गोनू झा हलसि कऽ ओछायनपरसँ उठला आ हुनका प्रणाम केलनि। माताक दर्शनसँ अपनाकेँ कृत-कृत्य मानलनि। कनिञे कालमे गोनू झाक उत्साह बिला गेलनि आ ओ गम्भीर भऽ उठला। भगवती चौँकि उठली। एखने गोनू झा प्रसन्न छला तखन एकाएक चिन्तित किए भऽ गेला। भगवती कारण पुछलथिन तँ गोनू झा बजला- नञि कोनो खास बात नञि। हम ई सोचऽ लगलहुँ जे हमरा सभकेँ एक टा मुँह अछि आ दू टा हाथ अछि। तखन जँ कहियो सर्दी भऽ जाइत अछि तँ नाक पोछैत-पौछैत तबाह रहै छी। दू टा हाथसँ एक टा नाक नञि सम्हरैत अछि, तखन अहाँकेँ तँ एक सय मुँह आ दू टा हाथ अछि। जँ कहियो सर्दी भऽ जाइत होयत तँ दू हाथसँ एक सय नाक कोना सम्हरैत होयत, यैह सोचऽ लागल रही। गोनू झाक बात सुनि भगवती ठठा कऽ हँसि पड़ली आ हुनका आशीर्वाद देलथिन जे बुद्धि-ज्ञानमे दुनिञामे अहाँकेँ क्यौ ने पछारत। दोसर दिन गोनू झा दरबार गेला तँ महाराजकेँ सभटा बात कहलथिन तँ ओहो खूब हँसला आ हुनका एहि मनोरञ्जक बात लेल खूब बिदाइ देलनि। 

सत्यवीर कथा

 
                                   सत्यवीर कथा

                   - महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ 

                                        प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठ

प्राचीन कालमे हस्तिनापुर नामक नगरमे महमद नामक  बादशाह भेल छला। सागरपर्यन्त भूमण्डलपर शासन केनिहार ओहि बादशाहक उत्कर्षकेँ काफर राजा सहन नञि कऽ सकल। ओ हुनकापर आक्रमण करबा लेल समस्त दलबलक संग ओतऽ आबि जुमल। ओकर एबाक समचार सुनि बादशाक लाख-लाख कम्बोज घोड़ा ओ तुर्क सबारकेँ संग लऽ शहरसँ बहराय युद्धक आह्वानकेँ स्वीकार कयल। तखन दुहू दलमे युद्ध ठनि गेल। जोरगर काफरराजक सेनासँ मारि खा यवन योद्धासभ युद्धसँ विमुख भऽ पड़ाय लागल। अपन सैनिक सभकेँ सिंहक डरसँ पड़ायल हाथीक दल सन देखि कऽ बाजल- हे हमर सेनाक जबान सभ! हे राजा, हे राजपुत्र लोकनि ! अहाँसभक बीच क्यौ एहन नञि छी जे तत्काल शत्रुक डरेँ छिन्न-भिन्न हमर सेनाकेँ अपन बाहुवलसँ क्षणमे रोकि सकी? बादशाहक ई वचन सुनि कार्णाटकुल संभूत नरसिंहदेव नामक एवं चौहान कुलमे जन्म लेनिहार चाचिकदेव नामक युगल राजकुमार बाजि उठला- राजन् ! नीचाँ मुँह खसैत जलकेँ ओ शत्रु-भयसँ छहोछित्त भगैत अहाँक सेनाकेँ आब एखन के थम्हा (बचा) सकैछ? परञ्च जँ क्षण भरि अहाँ घूरि देखी, तँ हमहीँ दुहू गोटे अहाँक शत्रुदलक मुण्डकेँ तरुआरिक धारक चोटक परिचय करा दी। बादशाह कहलनि- चाबस! अहाँ दुहूकेँ छोड़ि दोसर के एना कऽ सकैछ?
तदुत्तर नरसिंहदेवक बाहुमल रोमाञ्चकुञ्चित भ आयल। वज्रक आघात जकाँ चाबुकक चोटसँ घोड़ाकेँ दौड़ाओल, घूमि कऽ देखय-देखय ताबत काफर राजक सेनामे प्रवेश कऽ गेला। ओतऽ जा, विजयसँ उजागर श्वेत छत्रसँ चिन्हरगर काफर राजाकेँ अबैत देखि छातीपर भाला चला देलनि। काफर राजा ओहि वज्र समान भालाक चोटसँ निष्प्राण भऽ भूमिपर खसि पड़ला। ओमहर चाचिकदेव भूमिपर खसल हुनक मस्तक काटि बादशाहक आगाँ अनलनि। बादशाह पुछलनि- ककरा मस्तक थिक? चाचिकदेव कहलनि- काफर राजाक। यवनेश्वर पुछलनि- ककरा द्वारा मारल गेल? चाचिक बजला- पराक्रममे जे अर्जुनक तुलना करै छथि ओहि नरसिंहदेव द्वारा ओ मारल गेल अछि। हम तँ हुनका पाछाँ चलैत ओकर मस्तक टा काटल अछि। बादशाह पुछलनि- नरसिंहदेव कतऽ छथि? चाचिक कहलनि- काफर राजाक निकट रहनिहार अपन मालिकक मृत्युसँ विशेष रोषायल बहुतो मोगल सैनिक सभकेँ एकाँएकी मारैत टा हुनका म्हम देखलियनि। कतऽ गेला, एखन कतऽ छथि वा नञि छथि से नञि जानि।
तखन यवनराज शत्रुक सेनाकेँ, जकर नायक मारल गेल छलै, तकरा पड़ाइत देखि परम आनन्दित भेला। ओकरा सभक खेहार करैत अपन सैनिक जवान सभक प्रति कहलनि- हे हमर सैनिक सभ, पड़ाइत शत्रुसेनाकेँ की मारै जाइ छऽ? एखन हमर राज्यक रक्षा केनिहार ओे काफर राजक अन्तकारी नररूपी सिंह यथार्थनामा नरसिंहक पता लगा हमरा कहै जा।
ओकर बाद संग्रामभूमिक एक स्थलमे बादशाह बहुतो नाराचसँ छिन्न-भिन्न भेल शरीर, जाहिसँ शोणितक सहस्रो धार बहि रहल छलै, जे फुलायक पलाश जकाँ छल, वेदनासँ मूर्च्छित नरसिंहदेवकेँ देखलनि। बादशाह घोड़ासँ उतरि कहलनि- हे नरसिंहदेव! जीवन चाही? नरसिंहदेव बजला- हम जे कयल से अहाँ बुझलहुँ? यवनेश्वर कहलनि- बुझलहुँ, चाचिकदेव सभटा कहलनि। अहाँ हमर शत्रुकेँ मारलहुँ अछि। नरसिंह बजला- तखन हम जीवन चाहै छी। कारण-
जकर हितक इच्छासँ हम दुष्कर कर्म कयलहुँ से जँ बुझलनि तँ श्रम रूपी वृक्ष फलित भऽ गेल।
ओकर बाद हुनक शरीरसँ आपुंख निमग्न नाराचवाणकेँ बाहर करा यवनराज ओहि कुमारकेँ अनेक प्रकारक औषधिक प्रयोगसँ, संयमसँ, थोड़बे दिनमे घावरहित कऽ देलनि। तदुत्तर हजारो घोड़ा, लाखो अशर्फी, छत्र आ चारम आदिसँ हुनक सत्कारक आयोजन केलनि।
संवर्द्धनाक कालमे नरसिंह देव कहलनि- राजन राजपुत्र लोकनिक  युद्ध करब स्वभाविके  धर्म थिक। तखन हम कोन अद्भुत कयल जे ई सत्कार कऽ रहल छी। जँ तदर्थ सत्कार कर्तव्य अछि तँ चाचिकदेवक करू, जे शत्रुक मस्तक आनियो कऽ सत्यक रक्षार्थ अहाँक आगाँ हमर यशकेँ प्रकाशित केलनि, अपन पौरुष नञि ख्यात केलनि। नञि तँ हुनक आनल मारबाक चिह्नस्वरूप शत्रुक मस्तककेँ देखि के जानि सकैत जे हमहीँ शत्रुकेँ मारल अछि? तेँ पहिला पूजा-सत्कार हुनके कयल जाय।
चाचिक देव कहलनि- कुमार नरसिंह! से जुनि कही। कोना हम अहाँक पराक्रम फल लऽ दोसराक ऐँठायल यशसँ जीबी?
नरसिंह देव कहलनि- धन्य सत्यवीर! धन्य! अहाँक एहि सत्यसँ सभ वस्तुक विवेचना भऽ गेल। चाचिक अहाँ महान् आशय वला छी, क्रियाकुशल छी, सतीपुत्र छी।
तकर बाद दुहू कुमारक परस्सपर वार्तालाप सुनि अत्यन्त सन्तुष्ट भऽ यवनराज दुहू व्यक्तिकेँ समान रूपे सत्कार कयल। 

Monday, 9 September 2013

युद्धवीरक कथा महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ

                                     युद्धवीरक कथा
              महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ

                                                      प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठक

युद्धवीरक कथा सुनि कायर सभ शूर होइछ, आलसी उद्यमी बनैछ आ लोक विजय प्राप्त करैछ।
मिथिलामे कर्णाट वंशामे उत्पन्न नान्यदेव नामक राजाक बालक मल्लदेव कुमार छला। ओ स्वभावेसँ सिंह सन पराक्रम रसिक छला। मनहिमन अनुभव करैत छी,ई हमर पौरुष नञि थिक। हेतु जे-
कायर,नेना ओ स्त्री इएह परश्रित भय जीबैछ। सिंह ओ सत्पुरुष तँ अपन बलदर्पपर जीबैत अछि।
पिताक प्रति भक्तिओ तँ अपन अर्जित सम्पतियहिसँ संभव थिक। कहलो अछि- पिताकेँ कतबो पुत्र रहथुन ओ जाहि बेटाक कमाइ खाइत छथि, जकर यश सुनैत छथि तकरेसँ ओ बेटाबला कहबैत छथि। तेँ कतहु जा क’ अपन बहुबलसँ पुरुषार्थ करी, ई विचारि कुमार कनौज नामक जनपद गेलाह। ओतय जयचन्द्र नामका राजा ओतय, जनिक आधिपत्य काशी धरि छल, पहुँचि सैनिक पद्धतिसँ भेँट कयल। ओ राजा हुनका सत्कारपुर्वक अपन प्रिय सहचर बनाओल। कुमार हुनक सेवामे रहि, क्रमहिँ अधिक सम्मान-भाजन बनलाह। मुदा एकदिन हुनका आदरमे विषमता बुझि पड़लनि। हेतु जे- थोड़बो गुणबला बिषय वस्तु यदि दुर्लभ रहैछ तँ ओहिमे आदरभाव रहैछ। किन्तु अधिको गुणबला यदि सुलभतासँ भेटैछ तँ ओहिमे निश्चय राजालोकनिक अनादरक भावना होइत छनि। कुमार पुन: बिचारलनि- तृष्णासँ भरल लोकक प्राण धन थिकैक,आगिक प्राण जारन,कामीक प्राण कामिनी,तहिना मनस्वीक प्राण  मान  थिकनि । तदुत्तर राजाकेँ कहलनि-देव! अपनेक प्रभुत्व सुनि हम एतय आयल छलहु, आब आनठाम जायब। राजा बजलाह-कुमार! अहाँे उद्वेगक कारण की भेल जे आनठाम जायब? मल्लदेव कहल अपनपेक आदर क्रमश: हमरा विषयमे शिथिले भेल जायत, तकरे आशंकसँ एखन आनठाम जा रहल छी। राजा बजलाह ई कथाकोना बझुना गेल ? मल्लदेव  बजलाह- हमरालोकनिक आदर तँ शुरताक होइछ; शुरता वाग्युद्धसँ नञि बझाओल जा सकैछ। अस्त्रयुद्ध अहाँक राज्यमे देखितहि नञि छी। राजा  बजलाह-समुद्रपर्यन्त हम राजस्व ग्रहन करैत छी। हमरासंग युद्धमे अड़निहार केओ अछिए नञि। तखन युद्ध होअओ ककरा संग? कुमार कहल-देव! राजाकेँ विजयक आनन्द राज्यक फल थिकैक। किन्तु बिना युद्ध विजय कोना? आ’ तखन सुखे कत’ यदि अपनेकेँ मनहो तँ हम एतयसँ जाइ। हम जकरहि राज्यमे जायब सैह अपनेक संग संग्राममे लड़बा योग्य भ’ जायत। राजा तमसाय बजलहा-रे कुमार! तोँ केहने अभागल भुढ़ थिकह? कोन दर्पसँ एना बजै छह? जाह जतय जयबह। जतहि तोँ जयबह ततहि हम अभियान करब। कुमार बाजल-इएह हम चललहुँ। कुमार ओयतसँ चिक्कोनामक राजाक राज्यमे पहुँचलाह। पाछाँ काशीश्वर (जयचन्द्व) हुनका ओतय गेल बुझि, चतुरंगिणी सेनासंग साजिस चिक्कोरक विरुद्ध बिदा भेलाह। किछु कालक अनन्तर हुनका निकट आयल बुझि चिक्कोर अपन मन्त्रीसभक संग परामर्श कयल जे काशीश्वर कुपित भ’ हमरहिपर आबि रहल छथि। तेँ आब उचित कर्त्तव्य की थिक? मन्त्री लोकनि कहल- अपनेक शक्ति थोड़ अछि,ओ छथि महाबल,तेँ हुनक संग युद्ध उचित नञि। ने अपनेकेँ धने ततेक अछि जे पैघ मनबाला ओहि राजाकेँ धन दँ सन्धि क’ लेब। तेँ उचित जे कोनो किलाक आश्रय ली। तखन पड़यबालेल उताहुल देखि चिक्कोरकेँ  मल्लदेव कहलनि- राजन्! अपने एना पड़ाइ छी किऐक ? अपनेक उद्देशेँ काशीश्वर ने कहियो आयल छथि ने आगाँ अओताह। अपने विश्वास करी तँ हुनक आगमनक कारण कही। अपनेकेँ कोनो भय नञि हो। चिक्कोर पछुल-ओ कारण की थिकैक? मल्लदेव पहिलुक सभ कथा सुना देल । चिक्कोर पूछल तखन उचित की? मल्लदेव कहल-जेँ ओ हमरा उद्देश्येँ अबै छथि तेँ अपने नञि पड़ाउ। किन्तु हुनक अनेक योद्धाक संग एकसर हमर युद्ध-कौतुक देखल जाय। चिक्कोर कहल- ओहि महाराजक सेना अपार छनि। हुनका संग एकसर अहाँक लड़ब उचित नञि। नीतिक ई विरुद्धद थ्ज्ञिक। कुमार बजलाह-शूरताक काजे रहैछ आनक आमर्षकेँ नञि सहि सकी। चिक्कोर कहल- तेँ तँ बिनु विचारेँ जे काज करैछ तनिक क्रियारम्भ परिणाममे विपत्तिजनक होइछ। कुमार कहल- ई विवाद व्यर्थ। जे काज हम करब होयत एकर सदेह रहैछ,एहन समान बलबलामे युद्ध संगत होइछ। किन्तु प्रबल शत्रुबलमे आगिमे फतिंगा जकाँ कुदि मरैछ?। कुमार कहल-यश पयबाक इच्छासँ जे युद्धमे मृत्युक वरण कयलक अछि तकरा केहनो प्रबल शत्रु सँ भयक अवकाश कत’। यशक कामनासँ युद्धमे मरण चाहनिहार वीरक कीर्ति शत्रुक महत्वसँ आओर बढ़ैत छैक। आ’ प्राण बचयाबालेल जे व्यक्ति युद्धसँ पड़ादत छथि तनिका मृत्यु तँ होइतहि छनि किन्तु ओहिसँ विशेष होइ छनि हुनक कापुरुषताक प्रकटी करण। चिक्कोर कहल- कुमार,अहाँ महान् वीर छी। काशी नरेश महाराज छथि। अत: अहाँ दुनू बीच लड़ाइ होसे तँ हमरालोकनि सुनियो नञि सकैत छी,दैखबाक कोन कथा। कुमार उत्तर देल- यदि अपने युद्ध देख’ नञि चाहि तँ कतहु यमदुतसँ अलक्षित स्थानमे जाय अपने अमर भेल जाय। हम तँ युद्ध करबे करब। परन्तु यदि से तँ अपने हमरा एकटा हाथी द’ क’गेल जाय। हम तँ अपनकेँ शुन्यो नगरक पर्यवेक्षण करब। चिक्कोर राजा कुमारक कथानुसार से क’पड़यलाह। ओकर दोसर दिन भेरीक शब्दसँ आकाशमण्डलकेँ व्यात करैत कर्मकठ मर्म धरि स्पर्श कयनिहार घोड़ाक टापक प्रहारेँ भूमण्डलकेँ दलमलित करैत,महाराज जयचन्द्र हुनक नगरक निकट आबि पहुँचलाह। मल्लदेव बढ़िक’ राजाकेँ (सामने) देखल। राजा पूछलनि-हाथीपर चढ़ि,तोँ थिकहकेँ?   सन्धि करबालेल आयल चिक्कोरक दुत थिकह अथवा युद्धार्थी मल्लदेव? मल्लदेव कहल-राजन्! हम दुत नञि ,ने सन्धिएक हेतु आयल छी। किन्तु हम अपनेक प्रतिद्वन्द्वी योद्धा मल्लदेव थिकहुँ। राजा हँसिक बजलाह- हमर प्रतिमल्ला तोँ ठीक भेलह। आब एखन आबि क’हमर अनुसरण करह। मल्लदेव बाजल-अहीं हमर अनुसरण किण्क ने करैत छी? एखन तँ अहाँ घोड़ापर छी ओ हम हाथीपर। अहुँकेँ अस्त्र अछि,हमहुँ अस्त्ररखने छी। एखन तँ प्र्र्रसारक अवसर अछि तखन वचन-विलासक एखन अवकाश कोन? राजा आश्चर्यकसंग सैनिकसभकेँ कहल-सैनिक लोकनि, मल्लदेवकेँ जीविते पकड़ि हमरालग ल’आबह। मल्लदेव सभकेँ ललकारैत कहल- हे आकाशचारी दिक्पाल,मुनि एंव सिद्ध लोकनि! देवता! अपने लोकनि साक्षी रहू। सभगोटे एहि कौतुककेँ देखैत जाउ। राक्षसबृन्द ! नरमांससँ तृप्त होइत जाउ। वीरक प्रति अनुरागक उत्कण्ठा राखनिहारि अप्सरागण! आनन्द प्राप्त करू। संग्रामभूमिमे एकसरे मल्लदेव बहुतो (योद्ध)क संग महान् साहस देखा रहल छथि। तखन चारूदिस पकड़बालेल उमड़ैत शत्रुदलक योद्धालोकनिकेँ मल्लदेव नाराज बाणसँ मारल। हुनक आघातसँ अपन प्रियपात्र सैनिक जवानकेँ धराशायी होइत देखि जहचन्द्र सेनाकेँ आदेश देल-हे वीरपुरुष-गण ! यदि एहि मरणेन्मुख अपरोध नञि कँ सकह तँ वाणबृष्टिसँ एकरा डुबवह। तखन राजाक आज्ञा पाबि सैनिकसभ एक कालहिमे घनघोर वाणक धारासंपातसँ हुनका सराबोर कऽ देल। वाणसँ बिद्ध भऽ  ओ हाथीपरसँ भुमिपर खसि पडलाह। ओहि समयक कोनो एक प्राचीन कविक पद्य अछि- अस्स्ी सालक बुढ़ा-पक्ठोस चिक्कोर तँ पड़ा गेलाह,परंच सोलह,सालक कर्णाक युवा (मल्लदेव) संग्राममे धराशायी भेलाह। प्रचुर नाराचवार्णस छिन्नभिन्न शरीरबला मुकुटमणि! कर्णाटवंशक प्रतिष्ठावंशक बीजांकुर ! की अहाँ जीव चाहै छी? मल्लदेव कहल (पहिने) कहु, हमरा दुहु गोटेमे युद्ध केँ जीतल ? राजा बजलाह-हलरालोकनि बहुतो गोटेक संग अहाँ लड़ाई कयल आ आहत भेलहुँ ,ताहुँ पर अहाँ हमरासभकेँ जितबाक इच्छा रखितहि छी तखन अहाँ विजयी कोना नञि भेलहुँ  तखन राजा एहिा प्रशंसा वर्णनसँ हुनका बाहुबल रोमांचसँ भरि आयल आ बजलाह-देव ! हम आब जीयब। तदुत्तर हुनका शूरतासँ अत्यन्त प्रसन्न्  भऽ राजा जयचन्द कुमारक शरीरसँ बाण बाहर कराय अपना ओतय लऽ गेलाह ओ पुत्रक प्रेमसँ हुनका रक्षण-पालन कयल,घाव भरि अयलापर हुनका सत्कार-समारोहपुर्वक अपन प्रतिनिधि बनाओल। कहल गेल अछि-मल्लदवेक ओ बहादुरी तथा राजाक ओ विवेक ने कहियो अतीतकालमे भेल अछि ने भविष्यमे पुन: होयत ।