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Sunday, 22 September 2013

चोरक कथा - महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ


                                                                                       चोरक कथा


               - महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ 

                         प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठक 

संसारमे जाहि लोककेँ विवेक नञि रहैछ से चोर बनैछ, जकरामे शौर्य नञि से कायर कहबैछ ओ जकरामे उत्साह नञि हो से लोक आलसी भऽ जाइत अछि। जकरामे विवेक रहैत छै तकरामे दया, दान आदिक नीक वृत्ति आबि जाइ छै, मुदा जकरामे विवेक नञि रहै छै तकरामे तँ सभटा अधलाहे वृत्ति (दुर्गुणे) रहै छै। ओ चोरि करऽ लागि जाइत अछि। जकरामे शूरता रहै छै, मुदा विवेक नञि रहै छै ओ निश्चय पाप (अधलाह काज) करऽ लगैत अछि। जेना ‘सरीसृप’ नीक काज करबामे समर्थो छल तैयो चोर भऽ गेल।
उज्जयिनी नगरीमे विक्रमादित्य नामक राजा छला। हुनका एकदिन चोरि देखबाक इच्छा भेलनि तँ ओ भिखारिक वेष धऽ अपने नगरमे कोनो देवालय लग जा बैसला। जखन निशीथ राति भेलै तँ चारिटा चोर आबि कऽ अपनामे विचार करऽ लागल- ई जे घरसँ खेबाक सामग्री आनल अछि से एहिठाम खा दमगर भऽ नगरमे पैसी। विक्रमादित्य बजला- ऐँठ-कुठ हमरा दैत जायब। चोर सभक कान ठाढ़ भेलै, बाजल- रे! तोँ के थिकेँ? राजा कहलनि-हम भिखारि थिकहुँ, भूखेँ आँट छी चलि नञि होइत अछि, तेँ एतऽ पड़ल छी। चोर सभ तर्क केलक जे जखन नगरक बाट-घाटक पता लगा रहल छलहुँ, तखनो एकरा एत्तहि देखने छलियै। पुनि बाजल- रे कल्लर! एखन धरि तोँ एत्तहि किए छेँ? राजा कहलनि- दर्शनार्थी यात्री सभसँ भीख माङऽ एतऽ आयल छलहुँ, भीख नञि भेटल तँ अनतऽ कतऽ जैतहुँ, भूखल तते छी जे एत्तहि पड़ि रहलहुँ। चोर सभ बजल- जँ ऐँठ-कुठ देबौ तँ तोँ हमरा लोकनिक कोन उपकार करबेँ? राजा कहलनि- बड़का-बड़का  धनिकक घर देखा देब आ चोराओल वस्तुजातकेँ ऊघि देब। चोर सभ बाजल- बेस तँ, तखन रह, भेटतौ ऐँठ-कुठ। आब चोर सभ खेलक आ विक्रमादित्यकेँ  ऐँठ-कुठ देलकनि। ओ ओकरा खप्परमे लऽ बेताल द्वारा फेकबा देलनि आ कहल-वाह! आइ अहाँ लोकनिक प्रसादेँ हम कृतार्थ भऽ गेलहुँ। चोर सभमे ‘सरीसृप’ नामक जे मुखिया चोर छल, से बाजल- हे! हम सगुनशास्त्रकेँ खूब पढ़ने छी तेँ गीदर की बजैत अछि से हम बुझि जाइ छियै। आन चोर सभ बाजल-   तँ अकानऽ गीदर की बजैत अछि। सरीसृप कहलक- मित्र लोकनि; सुनै जा, गीदर कहैत छऽ जे ‘तोरा लोकनिमे चारि गोटे चोर छऽ आ एक गोटे राजा।’ आन चोर सभ बरजल- हमरा लोकनि चारू गोटे तँ अपनामे सभकेँ-सभ चिन्हिते छी, तखन ओ पाँचम तँ कल्लर थिक; दिनोमे तँ ओकरा देखनहि छलियै आ देखै छी जे ऐँठो लेलक अछि। तखन राजाक सन्देहे कोन? सरीसृप कहलक- गीदरक कथा तँ फूसि नञि भऽ सकै छै। आन चोर सभ बाजल- जकरा हम रातिमे देखै छी तकरा दिनोमे चीन्हि जाइ छी। तेसर बाजल- जकर घरपर हम हाथ दै छियै तकर घरक धन-सम्पत्ति जानि जाइ छी। चारिम बाजल-सेन्ह मारबाक स्थानने जतेक रेखा कयल जाइत अछि ततेटा सेन्ह बिना आयासे भऽ जाइत अछि। पछाति राजा कहलिन- हमरा आगाँमे क्यौ बान्हल नञि रहैत अछि।
तखन अपनामे गप्प-सप्प कऽ पाँचो गोटा नगरमे पैसला। नगरपति (मुखिया) केर घरमे सेन्ह काटि बहुतरास धन चोरेलनि आ नगरक बाहर आबि, एकटा खाधि खूनि ओहि धनकेँ गाड़ि कऽ राखि देलनि। विक्रमादित्य अपन महल चलि एला। बादमे राजा सभा-भवनमे सभकेँ बजेलनि आ अपने सिंहसनपर जा बैसला। नगरक दण्डाधिकारीकेँ बजा कहलनि आनक भेद लेबा लेल अहाँ नियुक्त छी आ अहाँ रातुक बात किछु नञि बुझै छियै! जाउ पिचिण्डिल सूड़िक (कलालक) ओहिठाम चारिटा चोर दारू पिबैत होयत, ओकरा सभके ँ हथकड़ी लगा पकड़ि लाउ। दण्डाधिकारी प्रणाम कऽ विदा भेला ओ चोर सभकेँ पकड़ि अनलनि। चोरसभकेँ देखि राजा पुछलनि- संगी चोरसभ, की हमरा चिन्है जाइ छऽ? सरीसृप कहलक-  हम तँ तखने अपनेकेँ चीन्हि गेलहुँ, मुदा हमर ई संगी लोकनि वज्र मूर्ख छथि। गीदराक कहलकेँ फूसि मानैत गेल। हम की करू? संगी लोकनिक बातपर भसिया गेलहुँ।
ठीके छै नीति जननिहार जँ एकसरे काज करथि तँ ओ सुखी भऽ सकै छथि, मुदा जखने बहुत गोटाक बात मानै छथि तखने हुनक मति भसिआ जाइ छनि।
महाराज! केहनो ने जननिहार रहथु, केहनो ने बुधिआर रहथु आ केहनो ने काजमे चतुर रहथु, मुदा जखने ओ बहुत लोकक विचारक कादोमे जेता तँ ओहिमे फँसबे करता।
राजा पुछलनि- रे चोर सभ! आनक कथापर जे भसिआइत गेलेँ, तकर तँ सोच करै जाइ छेँ, मुदा अपन ज्ञानक दोषेँ जे भसिआइत जाइ छेँ, तकरा किए ने सोचैत जाइ छेँ? चोरसभ कहलक- हमरा लोकनि अपन ज्ञानक दोषेँ कोना भसिआइ छी महाराज? राजा कहलनि- तोरा सभ वीरक वृत्तिसँ निर्वाह कऽ सकै छऽ, तखन जे चोरक वृत्ति धेने छऽ, से तँ साफ-साफ भसिआयबे थिकऽ।
जाहि शूरताक प्रसादात आन लोक एहि भूखण्डमे धन-सम्पत्ति पाबि आनन्दसँ जीवन बितबैत अछि आ पण्डितमण्लीमे सभ प्रकारेँ पुण्य एवं निर्मल यश पबैत अछि, प्रशंसाक साधन ताहि शूरताकेँ रखैत तोरा सभ चोर कहा निन्दित बूझल जाइ छऽ। ओह, केहन दु:खक बात थिक। ठीके दुर्मति छोड़ब बड़ कठिन छै।
चोर सभ बाजल- जी, सत्ते, एहिमे दुर्मतिए अछि महाराज! राजा कहलनि- जँ से मनै जाइ छऽ तँ ओहि दुर्मतिकेँ किए ने छोड़ै जाइ छह? चोर सभ कहलक- महराज! की करू? गरीबी ओकरा छोड़ऽ दैत तखन ने। सत्य कही तँ गरीबिए हमरा लोकनिकेँ पापमे लगबैछ, दु:ख भोगबैछ, चोरि करबैछ, छल-प्रपञ्च सिखबैछ, दीन वचन बजबैछ आ नीचसँ नीचक ओहिठाम भीख मङबैछ। आह!   गरीबी हमरा लोकनिसँ की-की ने करबैछ।
राजा कहलनि- अरे! तोरा सभक गरीबी तँ तहिए गेलऽ जहिए हमरासँ मैत्री करैत गेलऽ। मैत्री तँ समानेमे होइछ। तोरा सभक संग मैत्री कऽ जँ हम थोड़बो काल चोर भेलहुँ तँ तोरा सभ हमरा संग मैत्री कऽ राजा किए नञि हेबऽ? तेँ आबो एहि दुर्मतिकेँ छोड़ऽ। चोर सभ कहलक- किए ने छोड़ब महाराज! राजा कहलनि- एखन तँ बेड़ीमे  ठोकल छऽ, तोँ सभ की-की ने मानबऽ!
दुष्ट जखन विवश भऽ जाइछ तँ जीहक सुखे कोन दोष नञि छोड़ैछ वा कोन गुण नञि गहैछ?
नञि कोनो क्षति, जँ फेर कुचालि चलबऽ तँ फेर यैह दशा पेबऽ। एतबा कहि राजा नगरपतिकेँ धन देआ देलनि आ चोर सभकेँ छोड़ि देलनि। ओकरा सभमे जे सरीसृप नामक मुखिया चोर छल, तकरा शाल्मलिपुरक राजा बना देलनि आ बहुत रास अशर्फी दऽ आनो चोर सभक गरीबी मेटा देलनि। आब दया आ कुतुहल वश सभकेँ अपन-अपन स्थान जाय लेल कहलनि।
जखन बहुत समय बीति गेलै तँ राजा विचारलनि जे सरीसृप चोरकेँ तँ हम राजा बना देलियै, मुदा ओ राजा भऽ एखन की करैत अछि से बुझबाक चाही। कारण जे-
अबल-दुर्बल जँ बेसी भार उठाबय, मन्दाग्निवला जँ बेसी भोजन करय आ दुर्बुद्धि जँ पैघ राज्यक भार लेअय तँ परिणाम नीक नञि भऽ सकै छै।
ते ँ राजा विक्रमादित्य ‘सुचेतन’ नामक चरकेँ बुझबा लय पठेलनि जे राज पाबि ओ चोर की करैत अछि? चर ओतऽ जा सभ बात बुझलनि आ घुरि एला। राजा पुछलनि- कहू सुचेतन, की समाचार? चर कहलनि- महाराज! की कहबासँ अपनेक नीक होयत आ की कहबासँ अधलाह से हम नञि विचारब। हम सत्ये बात कहब, चरकेँ फूसि बाजब उचित नञि थिक। किएक तँ-
जेना कनाह आँखिसँ जीव किछु नञि देखैछ तहिना फुसिआह चरसँ राजा किछु नञि बुझि सकै छथि।
तेँ हम जे किछु देखल अछि, से निवेदन करै छी। श्रीमान् सुनल जाय-
जे अनकर अधलाह करबामे बहादुर अछि तेहन दुर्जनकेँ राज्य दऽ अपने बहुत गोटाकेँ विपत्ति देलहुँ अछि। पहिनहुँ तँ ओ दुर्वृत्ती छले, ताहिपरसँ अपने ओकरा समर्थ बना देलियै अछि। दुर्वृत्ती आ समर्थ भऽ आब तँ ओ की (अनर्थ) नञि करत? श्रीमान् तँ महात्मा छी, दयासँ मन द्रवित भेल, मुदा अपनहुँ तँ ओकर दुर्गतिए हटेलियै, स्वभाव कहाँ हटेलियै?
राज्यक फल थिकै यश, पुण्य आ सुख। जखन ओ फल ओकरा भेटिते ने छै, तखन राज्ये भेलासँ की? ओ नीक लोकक धन छीनि लैत अछि आ प्रतिष्ठित लोकक मानमर्दन करैछ। अपन सुविधा लेल दुजन कोन काज नजि करैछ?
ओ आनक स्त्रीक संग भोग-विलास करैत अछि आ बुझैत अछि जे कहियो मरबे नञि करब। ओ कामदेवक अस्त्रकेँ देखैत तँ अछि, मुदा यमराजक अस्त्रकेँ नञि देखैछ। ओकरा पापक डर नञि होइ छै, अधलाह काजक लाज नञि होइ छै आ अनकर धनसँ सन्तोष नञि होेइ छै। दुर्जनकेँ मात्सर्ये कोन? ओ अपने बजितो अछि जे चोरिए करैत-करैत हम राजा भेलहुँ अछि, तखन जाहिसँ अपन नीक भेल अछि, ताहि वृत्तिकेँ किए छोड़ब? अपने उदाहरणसँ ओ दृढ़ मानि लेलक अछि जे दुर्वृत्तिए करबासँ राज्य होइ छै। तेँ ओ दुर्वृत्तिकेँ छोड़िते नञि अछि।
दुर्जनके ँ विवेक नञि रहैछ, तेँ ओकरा राज्य शोभा नञि दैछ, चाहे ओ राज्य हाथीक हल्कासँ ने भरल हो आ शतशत रमणीसँ ने भरल हो। चोर जतऽ शासन कऽ रहल अछि, ततऽ की नञि हेतै? ओतऽ तँ शिवोत्तरो अग्राह्य नञि छै, बाह्मणो अवध्य नञि अछि आ मुनियोक सम्मान नञि होइ छनि।
ओ अपन कयल काजकेँ अपने नाश कऽ दैत अछि। लोभी लोक अपन कयलपर डटल कहाँ रहि सकैत अछि?
राजा बजला- सुचेतन! अहाँक एहि वर्णनसँ ओहि दुष्टक चरित्र बुझलहुँ। हमरा बड़ दु:ख भऽ रहल अछि। हम तँ एकरा अपने अयश मानै छी। चर कहल- अपनहिक अयश थिक महाराज! लोकसभ साफ-साफ बजैत अछि जे-
ओ लाज तँ राजा विक्रमादित्यकेँ थिकनि, चोरकेँ तँ ओ यशे थिकै जे दुनू गोट (राजा ओ चोर) एक थिका।
नीच लोककेँ सिक्का चढ़ेबासँ पैघो लोक छोट भऽ जाइछ। चन्द्रमा हरिणकँे कोड़ चढ़ेलनि, तेँ ने ओ कलंकी कहेलनि!
राजा पुछलनि- आब की करबाक चाही? चर कहल- महाराज। अपनेकेँ ई बड़का अयश छोड़ायब आवश्यक। एखन धरि तँ ओकरा छोड़ायब सोझ अछि। जँ बेसी लोकक मुँहमे अयश पसरल तँ ओकरा छोड़ायब कठिन होयत।
तखन राजा विक्रमादित्य भेष बदलि चोरक राज्य गेला आ चरक कहल बातक जाँच कयलनि। पुनि तखन चोरकँे राजगद्दीसँ उतारि पहिलुकेँ दशा (बन्दी) कऽ मारि देल।
अपराधीकेँ दण्ड देनिहार, राजा विक्रमादित्य सज्जनकेँ पीड़ा देनिहार (सरीसृप) चोरकेँ मारि देलनि। आब नगर शान्त रहओ, वृद्ध पण्डितलोकनि गुणसँ गौरव पाबथु, व्यापारी लोकनि निडर भऽ बाट चलथु, घर-घरमे धनिक सभ सुखसँ सूतथु आ धार्मिक उत्सवमे जागथु।

Sunday, 15 September 2013

सत्यवीर कथा

 
                                   सत्यवीर कथा

                   - महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ 

                                        प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठ

प्राचीन कालमे हस्तिनापुर नामक नगरमे महमद नामक  बादशाह भेल छला। सागरपर्यन्त भूमण्डलपर शासन केनिहार ओहि बादशाहक उत्कर्षकेँ काफर राजा सहन नञि कऽ सकल। ओ हुनकापर आक्रमण करबा लेल समस्त दलबलक संग ओतऽ आबि जुमल। ओकर एबाक समचार सुनि बादशाक लाख-लाख कम्बोज घोड़ा ओ तुर्क सबारकेँ संग लऽ शहरसँ बहराय युद्धक आह्वानकेँ स्वीकार कयल। तखन दुहू दलमे युद्ध ठनि गेल। जोरगर काफरराजक सेनासँ मारि खा यवन योद्धासभ युद्धसँ विमुख भऽ पड़ाय लागल। अपन सैनिक सभकेँ सिंहक डरसँ पड़ायल हाथीक दल सन देखि कऽ बाजल- हे हमर सेनाक जबान सभ! हे राजा, हे राजपुत्र लोकनि ! अहाँसभक बीच क्यौ एहन नञि छी जे तत्काल शत्रुक डरेँ छिन्न-भिन्न हमर सेनाकेँ अपन बाहुवलसँ क्षणमे रोकि सकी? बादशाहक ई वचन सुनि कार्णाटकुल संभूत नरसिंहदेव नामक एवं चौहान कुलमे जन्म लेनिहार चाचिकदेव नामक युगल राजकुमार बाजि उठला- राजन् ! नीचाँ मुँह खसैत जलकेँ ओ शत्रु-भयसँ छहोछित्त भगैत अहाँक सेनाकेँ आब एखन के थम्हा (बचा) सकैछ? परञ्च जँ क्षण भरि अहाँ घूरि देखी, तँ हमहीँ दुहू गोटे अहाँक शत्रुदलक मुण्डकेँ तरुआरिक धारक चोटक परिचय करा दी। बादशाह कहलनि- चाबस! अहाँ दुहूकेँ छोड़ि दोसर के एना कऽ सकैछ?
तदुत्तर नरसिंहदेवक बाहुमल रोमाञ्चकुञ्चित भ आयल। वज्रक आघात जकाँ चाबुकक चोटसँ घोड़ाकेँ दौड़ाओल, घूमि कऽ देखय-देखय ताबत काफर राजक सेनामे प्रवेश कऽ गेला। ओतऽ जा, विजयसँ उजागर श्वेत छत्रसँ चिन्हरगर काफर राजाकेँ अबैत देखि छातीपर भाला चला देलनि। काफर राजा ओहि वज्र समान भालाक चोटसँ निष्प्राण भऽ भूमिपर खसि पड़ला। ओमहर चाचिकदेव भूमिपर खसल हुनक मस्तक काटि बादशाहक आगाँ अनलनि। बादशाह पुछलनि- ककरा मस्तक थिक? चाचिकदेव कहलनि- काफर राजाक। यवनेश्वर पुछलनि- ककरा द्वारा मारल गेल? चाचिक बजला- पराक्रममे जे अर्जुनक तुलना करै छथि ओहि नरसिंहदेव द्वारा ओ मारल गेल अछि। हम तँ हुनका पाछाँ चलैत ओकर मस्तक टा काटल अछि। बादशाह पुछलनि- नरसिंहदेव कतऽ छथि? चाचिक कहलनि- काफर राजाक निकट रहनिहार अपन मालिकक मृत्युसँ विशेष रोषायल बहुतो मोगल सैनिक सभकेँ एकाँएकी मारैत टा हुनका म्हम देखलियनि। कतऽ गेला, एखन कतऽ छथि वा नञि छथि से नञि जानि।
तखन यवनराज शत्रुक सेनाकेँ, जकर नायक मारल गेल छलै, तकरा पड़ाइत देखि परम आनन्दित भेला। ओकरा सभक खेहार करैत अपन सैनिक जवान सभक प्रति कहलनि- हे हमर सैनिक सभ, पड़ाइत शत्रुसेनाकेँ की मारै जाइ छऽ? एखन हमर राज्यक रक्षा केनिहार ओे काफर राजक अन्तकारी नररूपी सिंह यथार्थनामा नरसिंहक पता लगा हमरा कहै जा।
ओकर बाद संग्रामभूमिक एक स्थलमे बादशाह बहुतो नाराचसँ छिन्न-भिन्न भेल शरीर, जाहिसँ शोणितक सहस्रो धार बहि रहल छलै, जे फुलायक पलाश जकाँ छल, वेदनासँ मूर्च्छित नरसिंहदेवकेँ देखलनि। बादशाह घोड़ासँ उतरि कहलनि- हे नरसिंहदेव! जीवन चाही? नरसिंहदेव बजला- हम जे कयल से अहाँ बुझलहुँ? यवनेश्वर कहलनि- बुझलहुँ, चाचिकदेव सभटा कहलनि। अहाँ हमर शत्रुकेँ मारलहुँ अछि। नरसिंह बजला- तखन हम जीवन चाहै छी। कारण-
जकर हितक इच्छासँ हम दुष्कर कर्म कयलहुँ से जँ बुझलनि तँ श्रम रूपी वृक्ष फलित भऽ गेल।
ओकर बाद हुनक शरीरसँ आपुंख निमग्न नाराचवाणकेँ बाहर करा यवनराज ओहि कुमारकेँ अनेक प्रकारक औषधिक प्रयोगसँ, संयमसँ, थोड़बे दिनमे घावरहित कऽ देलनि। तदुत्तर हजारो घोड़ा, लाखो अशर्फी, छत्र आ चारम आदिसँ हुनक सत्कारक आयोजन केलनि।
संवर्द्धनाक कालमे नरसिंह देव कहलनि- राजन राजपुत्र लोकनिक  युद्ध करब स्वभाविके  धर्म थिक। तखन हम कोन अद्भुत कयल जे ई सत्कार कऽ रहल छी। जँ तदर्थ सत्कार कर्तव्य अछि तँ चाचिकदेवक करू, जे शत्रुक मस्तक आनियो कऽ सत्यक रक्षार्थ अहाँक आगाँ हमर यशकेँ प्रकाशित केलनि, अपन पौरुष नञि ख्यात केलनि। नञि तँ हुनक आनल मारबाक चिह्नस्वरूप शत्रुक मस्तककेँ देखि के जानि सकैत जे हमहीँ शत्रुकेँ मारल अछि? तेँ पहिला पूजा-सत्कार हुनके कयल जाय।
चाचिक देव कहलनि- कुमार नरसिंह! से जुनि कही। कोना हम अहाँक पराक्रम फल लऽ दोसराक ऐँठायल यशसँ जीबी?
नरसिंह देव कहलनि- धन्य सत्यवीर! धन्य! अहाँक एहि सत्यसँ सभ वस्तुक विवेचना भऽ गेल। चाचिक अहाँ महान् आशय वला छी, क्रियाकुशल छी, सतीपुत्र छी।
तकर बाद दुहू कुमारक परस्सपर वार्तालाप सुनि अत्यन्त सन्तुष्ट भऽ यवनराज दुहू व्यक्तिकेँ समान रूपे सत्कार कयल। 

Monday, 9 September 2013

युद्धवीरक कथा महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ

                                     युद्धवीरक कथा
              महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ

                                                      प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठक

युद्धवीरक कथा सुनि कायर सभ शूर होइछ, आलसी उद्यमी बनैछ आ लोक विजय प्राप्त करैछ।
मिथिलामे कर्णाट वंशामे उत्पन्न नान्यदेव नामक राजाक बालक मल्लदेव कुमार छला। ओ स्वभावेसँ सिंह सन पराक्रम रसिक छला। मनहिमन अनुभव करैत छी,ई हमर पौरुष नञि थिक। हेतु जे-
कायर,नेना ओ स्त्री इएह परश्रित भय जीबैछ। सिंह ओ सत्पुरुष तँ अपन बलदर्पपर जीबैत अछि।
पिताक प्रति भक्तिओ तँ अपन अर्जित सम्पतियहिसँ संभव थिक। कहलो अछि- पिताकेँ कतबो पुत्र रहथुन ओ जाहि बेटाक कमाइ खाइत छथि, जकर यश सुनैत छथि तकरेसँ ओ बेटाबला कहबैत छथि। तेँ कतहु जा क’ अपन बहुबलसँ पुरुषार्थ करी, ई विचारि कुमार कनौज नामक जनपद गेलाह। ओतय जयचन्द्र नामका राजा ओतय, जनिक आधिपत्य काशी धरि छल, पहुँचि सैनिक पद्धतिसँ भेँट कयल। ओ राजा हुनका सत्कारपुर्वक अपन प्रिय सहचर बनाओल। कुमार हुनक सेवामे रहि, क्रमहिँ अधिक सम्मान-भाजन बनलाह। मुदा एकदिन हुनका आदरमे विषमता बुझि पड़लनि। हेतु जे- थोड़बो गुणबला बिषय वस्तु यदि दुर्लभ रहैछ तँ ओहिमे आदरभाव रहैछ। किन्तु अधिको गुणबला यदि सुलभतासँ भेटैछ तँ ओहिमे निश्चय राजालोकनिक अनादरक भावना होइत छनि। कुमार पुन: बिचारलनि- तृष्णासँ भरल लोकक प्राण धन थिकैक,आगिक प्राण जारन,कामीक प्राण कामिनी,तहिना मनस्वीक प्राण  मान  थिकनि । तदुत्तर राजाकेँ कहलनि-देव! अपनेक प्रभुत्व सुनि हम एतय आयल छलहु, आब आनठाम जायब। राजा बजलाह-कुमार! अहाँे उद्वेगक कारण की भेल जे आनठाम जायब? मल्लदेव कहल अपनपेक आदर क्रमश: हमरा विषयमे शिथिले भेल जायत, तकरे आशंकसँ एखन आनठाम जा रहल छी। राजा बजलाह ई कथाकोना बझुना गेल ? मल्लदेव  बजलाह- हमरालोकनिक आदर तँ शुरताक होइछ; शुरता वाग्युद्धसँ नञि बझाओल जा सकैछ। अस्त्रयुद्ध अहाँक राज्यमे देखितहि नञि छी। राजा  बजलाह-समुद्रपर्यन्त हम राजस्व ग्रहन करैत छी। हमरासंग युद्धमे अड़निहार केओ अछिए नञि। तखन युद्ध होअओ ककरा संग? कुमार कहल-देव! राजाकेँ विजयक आनन्द राज्यक फल थिकैक। किन्तु बिना युद्ध विजय कोना? आ’ तखन सुखे कत’ यदि अपनेकेँ मनहो तँ हम एतयसँ जाइ। हम जकरहि राज्यमे जायब सैह अपनेक संग संग्राममे लड़बा योग्य भ’ जायत। राजा तमसाय बजलहा-रे कुमार! तोँ केहने अभागल भुढ़ थिकह? कोन दर्पसँ एना बजै छह? जाह जतय जयबह। जतहि तोँ जयबह ततहि हम अभियान करब। कुमार बाजल-इएह हम चललहुँ। कुमार ओयतसँ चिक्कोनामक राजाक राज्यमे पहुँचलाह। पाछाँ काशीश्वर (जयचन्द्व) हुनका ओतय गेल बुझि, चतुरंगिणी सेनासंग साजिस चिक्कोरक विरुद्ध बिदा भेलाह। किछु कालक अनन्तर हुनका निकट आयल बुझि चिक्कोर अपन मन्त्रीसभक संग परामर्श कयल जे काशीश्वर कुपित भ’ हमरहिपर आबि रहल छथि। तेँ आब उचित कर्त्तव्य की थिक? मन्त्री लोकनि कहल- अपनेक शक्ति थोड़ अछि,ओ छथि महाबल,तेँ हुनक संग युद्ध उचित नञि। ने अपनेकेँ धने ततेक अछि जे पैघ मनबाला ओहि राजाकेँ धन दँ सन्धि क’ लेब। तेँ उचित जे कोनो किलाक आश्रय ली। तखन पड़यबालेल उताहुल देखि चिक्कोरकेँ  मल्लदेव कहलनि- राजन्! अपने एना पड़ाइ छी किऐक ? अपनेक उद्देशेँ काशीश्वर ने कहियो आयल छथि ने आगाँ अओताह। अपने विश्वास करी तँ हुनक आगमनक कारण कही। अपनेकेँ कोनो भय नञि हो। चिक्कोर पछुल-ओ कारण की थिकैक? मल्लदेव पहिलुक सभ कथा सुना देल । चिक्कोर पूछल तखन उचित की? मल्लदेव कहल-जेँ ओ हमरा उद्देश्येँ अबै छथि तेँ अपने नञि पड़ाउ। किन्तु हुनक अनेक योद्धाक संग एकसर हमर युद्ध-कौतुक देखल जाय। चिक्कोर कहल- ओहि महाराजक सेना अपार छनि। हुनका संग एकसर अहाँक लड़ब उचित नञि। नीतिक ई विरुद्धद थ्ज्ञिक। कुमार बजलाह-शूरताक काजे रहैछ आनक आमर्षकेँ नञि सहि सकी। चिक्कोर कहल- तेँ तँ बिनु विचारेँ जे काज करैछ तनिक क्रियारम्भ परिणाममे विपत्तिजनक होइछ। कुमार कहल- ई विवाद व्यर्थ। जे काज हम करब होयत एकर सदेह रहैछ,एहन समान बलबलामे युद्ध संगत होइछ। किन्तु प्रबल शत्रुबलमे आगिमे फतिंगा जकाँ कुदि मरैछ?। कुमार कहल-यश पयबाक इच्छासँ जे युद्धमे मृत्युक वरण कयलक अछि तकरा केहनो प्रबल शत्रु सँ भयक अवकाश कत’। यशक कामनासँ युद्धमे मरण चाहनिहार वीरक कीर्ति शत्रुक महत्वसँ आओर बढ़ैत छैक। आ’ प्राण बचयाबालेल जे व्यक्ति युद्धसँ पड़ादत छथि तनिका मृत्यु तँ होइतहि छनि किन्तु ओहिसँ विशेष होइ छनि हुनक कापुरुषताक प्रकटी करण। चिक्कोर कहल- कुमार,अहाँ महान् वीर छी। काशी नरेश महाराज छथि। अत: अहाँ दुनू बीच लड़ाइ होसे तँ हमरालोकनि सुनियो नञि सकैत छी,दैखबाक कोन कथा। कुमार उत्तर देल- यदि अपने युद्ध देख’ नञि चाहि तँ कतहु यमदुतसँ अलक्षित स्थानमे जाय अपने अमर भेल जाय। हम तँ युद्ध करबे करब। परन्तु यदि से तँ अपने हमरा एकटा हाथी द’ क’गेल जाय। हम तँ अपनकेँ शुन्यो नगरक पर्यवेक्षण करब। चिक्कोर राजा कुमारक कथानुसार से क’पड़यलाह। ओकर दोसर दिन भेरीक शब्दसँ आकाशमण्डलकेँ व्यात करैत कर्मकठ मर्म धरि स्पर्श कयनिहार घोड़ाक टापक प्रहारेँ भूमण्डलकेँ दलमलित करैत,महाराज जयचन्द्र हुनक नगरक निकट आबि पहुँचलाह। मल्लदेव बढ़िक’ राजाकेँ (सामने) देखल। राजा पूछलनि-हाथीपर चढ़ि,तोँ थिकहकेँ?   सन्धि करबालेल आयल चिक्कोरक दुत थिकह अथवा युद्धार्थी मल्लदेव? मल्लदेव कहल-राजन्! हम दुत नञि ,ने सन्धिएक हेतु आयल छी। किन्तु हम अपनेक प्रतिद्वन्द्वी योद्धा मल्लदेव थिकहुँ। राजा हँसिक बजलाह- हमर प्रतिमल्ला तोँ ठीक भेलह। आब एखन आबि क’हमर अनुसरण करह। मल्लदेव बाजल-अहीं हमर अनुसरण किण्क ने करैत छी? एखन तँ अहाँ घोड़ापर छी ओ हम हाथीपर। अहुँकेँ अस्त्र अछि,हमहुँ अस्त्ररखने छी। एखन तँ प्र्र्रसारक अवसर अछि तखन वचन-विलासक एखन अवकाश कोन? राजा आश्चर्यकसंग सैनिकसभकेँ कहल-सैनिक लोकनि, मल्लदेवकेँ जीविते पकड़ि हमरालग ल’आबह। मल्लदेव सभकेँ ललकारैत कहल- हे आकाशचारी दिक्पाल,मुनि एंव सिद्ध लोकनि! देवता! अपने लोकनि साक्षी रहू। सभगोटे एहि कौतुककेँ देखैत जाउ। राक्षसबृन्द ! नरमांससँ तृप्त होइत जाउ। वीरक प्रति अनुरागक उत्कण्ठा राखनिहारि अप्सरागण! आनन्द प्राप्त करू। संग्रामभूमिमे एकसरे मल्लदेव बहुतो (योद्ध)क संग महान् साहस देखा रहल छथि। तखन चारूदिस पकड़बालेल उमड़ैत शत्रुदलक योद्धालोकनिकेँ मल्लदेव नाराज बाणसँ मारल। हुनक आघातसँ अपन प्रियपात्र सैनिक जवानकेँ धराशायी होइत देखि जहचन्द्र सेनाकेँ आदेश देल-हे वीरपुरुष-गण ! यदि एहि मरणेन्मुख अपरोध नञि कँ सकह तँ वाणबृष्टिसँ एकरा डुबवह। तखन राजाक आज्ञा पाबि सैनिकसभ एक कालहिमे घनघोर वाणक धारासंपातसँ हुनका सराबोर कऽ देल। वाणसँ बिद्ध भऽ  ओ हाथीपरसँ भुमिपर खसि पडलाह। ओहि समयक कोनो एक प्राचीन कविक पद्य अछि- अस्स्ी सालक बुढ़ा-पक्ठोस चिक्कोर तँ पड़ा गेलाह,परंच सोलह,सालक कर्णाक युवा (मल्लदेव) संग्राममे धराशायी भेलाह। प्रचुर नाराचवार्णस छिन्नभिन्न शरीरबला मुकुटमणि! कर्णाटवंशक प्रतिष्ठावंशक बीजांकुर ! की अहाँ जीव चाहै छी? मल्लदेव कहल (पहिने) कहु, हमरा दुहु गोटेमे युद्ध केँ जीतल ? राजा बजलाह-हलरालोकनि बहुतो गोटेक संग अहाँ लड़ाई कयल आ आहत भेलहुँ ,ताहुँ पर अहाँ हमरासभकेँ जितबाक इच्छा रखितहि छी तखन अहाँ विजयी कोना नञि भेलहुँ  तखन राजा एहिा प्रशंसा वर्णनसँ हुनका बाहुबल रोमांचसँ भरि आयल आ बजलाह-देव ! हम आब जीयब। तदुत्तर हुनका शूरतासँ अत्यन्त प्रसन्न्  भऽ राजा जयचन्द कुमारक शरीरसँ बाण बाहर कराय अपना ओतय लऽ गेलाह ओ पुत्रक प्रेमसँ हुनका रक्षण-पालन कयल,घाव भरि अयलापर हुनका सत्कार-समारोहपुर्वक अपन प्रतिनिधि बनाओल। कहल गेल अछि-मल्लदवेक ओ बहादुरी तथा राजाक ओ विवेक ने कहियो अतीतकालमे भेल अछि ने भविष्यमे पुन: होयत ।     

दयावीरक कथा ‘पुरुष परीक्षा’ सँ

                                       दयावीरक कथा

                 महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ

                                                     
                            प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठक 

श्रेष्ठ दयालु पुरुष वैह थिका जे सभ प्राणीक उपकारक छथि। हुनक नाम-यशक चर्चोसँ कल्याण होइत अछि।
यमुना नदीक तटपर योगिनीपुर नामक नगर अछि। ओतऽ अल्लावद्दीन नामक यवन राजा भेला। ओ एक दिन कोनो कारणेँ महिम साह नामक सेनापतिपर तमसेला। ओ यवन सेनापति अपन मालिककेँ कुपित जानि, जे ई हमर प्राणे लऽ लेता, सोचऽ लागल- अमर्ष रखनिहार राजाक विश्वास नञि करी। कारण-
 राजा, दुष्ट ओ साँप तीनू कतहु विश्वासक योग्य नञि होइछ। ओ आदर-भाव देखबितो रहत तैयो अतर्कित रूपेँ प्राणघात कऽ देत।
तेँ एखने, जाधरि हम बन्धनमे नञि पड़ल छी ताबते, एतऽ सँ कतहु जा अपन प्राणरक्षा करी। ई विचारि ओ परिवार सहित पड़ा गेल। पड़ाइतो ओ सोचलक जे परिवारकेँ संग लऽ कऽ दूर जायब सेहो सम्भव नञि आ परिवारकेँ छोड़ि पड़यबो उचित नञि कारण-
प्राणक लेल कुल-परिवारकेँ त्यागि जे दूर जाइछ से तँ एक प्रकारेँ परलोके चलि गेल, ओकर जीनहुँ की?
 तेँ एतहि, दयावीर हम्मीर देवक ओतऽ जा शरण ली। ई विचारि महिमसाह हम्मीर देवक ओतऽ जा हुनका कहलक- देव! बिनु अपराधेँ मारबा लेल प्रस्तुत मालिकक डरेँ हम अपनेक शरणमे आयल छी। जँ हमर रक्षा कऽ सकी तँ विश्वास देल जाय, नञि तँ एतऽसँ कतहु आन ठाम जाइ। राजा बजला- यवन! तोँ हमर शरणमे अयलऽ, तँ हमरा जीवैत यवनराजक कोन कथा, यमराजो तोहर किछु नञि बिगाड़ि सकथुन। तेँ निर्भय भऽ कऽ रहऽ। तखन ओ यवनक सेनापति ओतहि रनथम्भ नामक किलामे शंकाहीन भऽ रहऽ लागल।
क्रमश: यवनराजकेँ बुझबामे अयलै जे महिमसाह एतहि अछि, तखन ओ अत्यन्त तमसायल, हाथी, घोड़ा, पैदल सेनाक पदाघातसँ पृथ्वीकेँ कँपबैत लड़ाइक मारुबाजाक शब्दसँ दिशा-दिशाकेँ मुखरित करैत, किछुए दिनमे बाट टपैत, किलाक फाटकपर जुमि गेल। ओ प्रलय कालक मेघ जकाँ तीर बरसेबाक दृश्य उपस्थित केलक। हम्मीर देव सेहो गहीँर गड़खैंस चारूभर घेरल-बेढ़ल, भालाक नोकसँ तीख-चोख गुम्बजवला, पताकासँ चकमक फाटक वला किलाकेँ सुसज्जित कऽ, तीरकेँ धनुषक डोरीपर चढ़ा रनरनाइत अपना प्रहारसँ गगन मण्डलकेँ अन्हरा देलनि।
युद्धक ई पहिल चरण छल। तकर बाद यवनराज हम्मीर देवक ओतऽ दूत पठाओल। दूत बाजल- हे हम्मीर राजा! बादशाहक हुकुम अछि जे हमर विरोधी महिमसाहकेँ हमरा सोपि दी। जँ से नञि तँ काल्हि सबेरे अहाँक किलाकेँ घोड़ाक टापसँ पस्त कऽ महिम साहक संगहि अहूँकेँ यमपुर पठायब। हम्मीर देव बजला- दूत! तोँ अवध्य छेँ, तोरा कयल की जाय? एकर जवाब तोरा मालिककेँ शब्दे नञि, तरूआरिसँ देल जायत। हमर शरणागतकेँ यमराज तँ आँखि उठाय देखिये ने सकैछ, बादशाहक कोन कथा? दुरदुरायल दूतक फिरलापर यवनराज तामसेँ भेर भऽ युद्धमे जुटि गेल। दुहू दलमे युद्ध  तेना बढ़ि चलल जे तीन बरख धरि प्रतिदिन दुहू पक्षक योद्धा आमने-सामने लड़थि, पाछाँ हटथि, चढ़ि आबथि, पछड़ि जाथि, मरथि आ मारल जाथि। पाछाँ यवन सेनाक आधा जवान मारल गेल, तखन आधा सेनासँ किला जीतब कठिन बूझि यवनराज अपन राजधानी फिरि जेबाक विचार केलनि। हुनक प्रयासकेँ विफल देखि, रायमल्ल ओ रामपाल नामक दू गोट दुष्ट सचिव यवनराजसँ आबि भेट केलक। दुनू गोटे बाजल- यवनराज! अपने कतहु नञि जाउ। किलामे अकाल पड़ल अछि, हमरा दुहू गोटेकेँ किलाक रत्ती-रत्ती हालचाल बुझल अछि। काल्हि वा परसू हम किला दखल करबा देब। तखन बादशाह ओहि दुष्ट सचिवकेँ पुरस्कृत कऽ किलाक घेराबन्दी कऽ देल।
एहि प्रकारक संकट देखि हम्मीर देव अपन सैनिकक सभकेँ कहलनि- हे जाजदेव सन योद्धागण! हमर सेना थोड़ अछि, तथापि शरणागतक प्रति दयाभावक कारणेँ बड़ पैघ सैन्यशक्ति रखनिहार यवनराजहुक संग युद्ध करब। ई काज नीति जननिहारक मतक प्रतिकूल अछि। तेँ तोरा लोकनि किलासँ बाहर भऽ आन ठाम जाइत जा। ओ सभ उत्तर देल- अपने जखन निरपराध राजा भऽ शरणमे आयल यवनहुक प्रति दयाभावसँ संग्राममे मरण अंगीकार कऽ रहल छी, तखन हमरा लोकनि अपने जीविका पाबि कोना अपन स्वामीकेँ छोड़ि कायर पुरुषक काज करब? काल्हि भोर होइते श्रीमानक शत्रुकेँ मारि प्रभुक मनोरथ पूर्ति करब। हँ, एहि बेचारा यवनकेँ दोसर स्थानमे पठा देल जाय। ताहिसँ रक्षणीय व्यक्तिक रक्षा होयत। ओकरे रक्षाक निमित्तेँ ई युद्ध आरम्भ अछि। यवन बाजल- देव! किए एकटा विदेशी जे हम, तकर रक्षाक हेतु अपने स्त्री पुत्रादि सहित अपन राज्यकेँ नष्ट करब? हमरा परित्याग कऽ सोपि दी। राजा बजला- यवन! एना नञि बाज। कारण-
एहि नाशवान भौतिक शरीरसँ जँ चिरस्थायी यश प्राप्त हो तँ एकर परिहार के करऽ चाहत?
जँ तोँ कहऽ तँ तोरा एक भय रहित स्थानमे पहुँचा दी। यवन बाजल- से जुनि कही। पहिने हमही विपक्षी लोकनिक मस्तकपर प्रहार करब। मात्र स्त्री सभकेँ बाहर कयल जाय। स्त्री सभ बजली- हमरा लोकनि स्वामीक शरणागतक रक्षा लेल युद्ध स्वीकार कऽ स्वर्गयात्राक महोत्सव लेल प्रस्तुत होइ छी, ओ हुनका लोकनिक बिना एहि पृथ्वीपर हम सभ रहब कथी लेल? कारण-
जेना बिनु गाछक अवलम्बने लता नञि टिकैछ तहिना बिनु स्वामीक नारी सेहो जीवा योग्य नञि। साध्वी नारीक प्राण तँ एहि संसारमे स्वामीक प्राणक संगहि बिदा होइछ।
तेँ हमरहु लोकनि, वीरपत्नीकेँ जेना चाही अग्निमे प्रवेश करब- जौहर व्रतक पालन करब। एहि प्रकारे-
महाराज हम्मीर देव जखन   आनक लेल अपन प्राण उत्सर्ग करै छथि तखन योद्धा लोकनि युद्धमे अपनाकेँ होमि देबा लेल प्रस्तुत भेल ओ स्री सभ अग्निमे प्रवेश करबे इष्ट बुझलनि।
अन्नन्तर भोरमे जखन युद्ध आरम्भ भेल तखन हम्मीर देव तैयार भऽ घोड़ापर चढ़ि अपन भट लोकनिकेँ संग लऽ पराक्रम देखबैत किलासँ बहरेला, ओ तरुआरिक धारक प्रहारसँ शत्रुक सेना ओ घोड़ाकेँ कटैत, हाथीकेँ नष्ट करैत, पैदल सेनाकेँ खेहारि दूर भगबैत, भय उपजबैत, माथ कटल धड़केँ नचबैत, सोनितक धारसँ महीमण्डलकेँ रङैत, स्वयं बाणसँ खण्ड-खण्ड शरीर भय, घोड़ाक पीठहिपर प्राणत्याग कयल ओ संग्राम-भूमिक बीच धराशायी भेला तथा वीरधर्मसँ सूर्यमंडलकेँ भेद करैत स्वर्गीय भेला। कहलो अछि-
अपूर्व वैभवशाली  महल ओ प्रसन्नवन्दना तरुणी, आ धन-सम्पन्न राज्य, ओहन-ओहन घोड़ा-हाथीमे, जाहिमे एको वस्तुकेँ आनक लेल छोड़ब ककरो लेल असम्भव ताहि समस्त वैभव विलासकेँ त्यागि हम्मीर देव संग्राम भूमिमे धराशायी भेला।  

Wednesday, 21 August 2013

  ग्दानवीरक कथा
महाकवि विद्यापति रचित ‘पुरुष परीक्षा’ सँ उद्धृत

प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठक

उज्जयिनी नामक एक राजधानी छल। ओतऽ विक्रमादित्य नामक राजा भेला। ओ एक दिन सिंहानपर बैसल कोनो वैतालिक द्वारा पठित एक श्लोक सुनलनि जकर अर्थ छल-
‘दानवीर राजा बलाहक जय जयकार। ओ राजा ओहने महान छथि जनिक गुणगान सन्तुष्टमन ब्राह्मण लोकनि, पूर्ण मनोरथ प्रसन्नचित बन्दी लोकनि, इच्छापूर्तिसँ कृतार्थ नोकर सभ, अधीनस्थ देश-देशक राजागण, बन्दी भेल पण्डित समुदाय ओ स्वर्ण पुरस्कार प्राप्त योद्धा लोकनि दिशा-दिशामे नित्य नियमित रूपेँ करैत रहै छथि।’
एकर बाद राजा उक्त श्लोक पढ़निहार वैतालिककेँ कहलनि- ‘हौ वैतालिक! तोहर ई राजा बलाह थिका के? हमरा आगाँ एना गर्वपूर्वक हुनक उत्कर्षक वर्णन किए कऽ रहल छऽ?’
वैतालिक बाजल- ‘हम थिकहुँ वैतालिक, हमर तँ ई वृत्तिए थिक जे वीर लोकनिक यश दिश-दिश विस्तार करैत रही। कारण, वैतालिक तँ संग्राममे शूरगणकेँ ललकारा दऽ बढ़बैछ, मदान्धकेँ बोध दैछ, कायरक दुर्गुण हटबैछ आ राजा लोकनिक आगाँ विपक्षीक गुणक चर्चा करैछ, वैतालिक प्राण बरु दऽ देत, मुदा हृदयक संकोच कृपणता नञि राखत। तेँ तँ शूर लोकनि हमरा परितोष दै छथि आ हम हुनका सभक यशक अंकुरित पौधकेँ दिग्दिगन्त धरि पल्लवित करैत रहै छी। श्रीमानकेँ जँ से सुनबासँ अमर्ष हो तँ ओहिसँ बेसी वा ओहनो पौरुष देखाओल जाय। एहि हेतु कोप कथीक?’
राजा पुछलनि- ‘केहन की छनि पौरुष?’
वैतालिक बाजल- ‘देव! ओहि बलाह नामक राजाक द्वारिपर सभ राति सोनक एक मन्दिर तैयार होइछ, प्रतिदिन ओकरा काटि-काटि ओकर सोन लऽ कऽ राजा ब्राह्मण, गुणी ओ दरिद्र लोकसभमे बाँटल करै छथि। हुनक एहि दानसँ सन्तुष्ट भऽ कऽ लोक सभ हुनक यशोगान करैत रहै छथि।’
राजा बजला- ‘वैतालिक! तोँ ई सत्य कहै छ?’
वैतालिक कहल- ‘असत्य के कहत? जँ अपनेकेँ विश्वास नञि हो तँ अपन गुप्तचर द्वारा एकर जाँच करबा ली।’
राजा बजला- ‘जा धरि एकर निरूपण नञि कऽ ली ता धरि तोँ एही नगरमे रहऽ। जँ तोहर कहब सत्य हेतऽ तँ तोरा रत्नक पुरस्कारसँ सम्मानित करब। ई कहि राजा वैतालिककेँ बाहर पठेलनि आ अन्त:पुरमे जा एकान्तमे विचार करऽ लगला- बलाहक चरित्र तँ अत्यन्त आर्श्चजनक अछि! अथवा विधाताक सृष्टि-प्रपञ्चमे असम्भव की अछि? तेँ जा कऽ ई कुतूहल देखी- ई विचारि, राज्यक भार मन्त्री लोकनिककेँ दऽ अपने अग्नि ओ कोकिल नामक दू वेतालकेँ बजा, ओकर कान्हपर सवार भऽ बलाहक राजधानी गेला। ओतऽ जुआन सैनिकक वेष बना राजा बलाहकेँ भेट कऽ कहलनि- ‘महाराज! संग्राममे जकर समान क्यौ दोसर योद्धा नञि एहन साहसांक विक्रमादित्य राजाक हम द्वारपाल थिकहुँ, अपनेक नाम यश सुनि अपनेक ओतऽ सेवा हेतु आयल छी।’ ई निवेदन कऽ ओ राजाकेँ प्रणाम केलनि। राजा कहलनि- ‘हे द्वारपाल, तोँ तँ बड़ पैघ महाराजक द्वारपाल थिकॅ, हमरो ओतऽ द्वारहिपर अधिकारी भऽ कऽ रहऽ।’ ओहि दिनसँ विक्रमादित्यक द्वारपर स्थित भऽ, अत्यन्त आश्चर्यजनक घटना देखथि जे प्रतिदिन स्वर्णमन्दिर बनैत अछि आ ओकर समस्त सोन लोकमे बाँटल जाइछ। ओ सोचऽ लगला जे हिनका स्वर्णमन्दिर कोना भेटै छनि, हमरा से किए ने भेटैछ? जे काज कोनो पुरुष कऽ सकैछ तकरा लेल ककरो उदासीन नञि हेबाक थिक। कारणक जाँच तँ कऽ लेब उचित। तखन ओ ओकर कारणक जिज्ञासा करऽ लगला।
एक दिन रातिक निशाभागमे, जखन नगरक लोक आ राजपरिवारक सभ व्यक्ति सूति रहल छला, तखन ओ (विक्रमादित्य) देखलिन जे राजा बलाह अपन महलसँ बहरा नगरसँ बाहर विदा भेला। ई देखि, ओ चुप्पे, जाहिसँ ओ लक्ष्य नञि कऽ सकथि ताहि रुपेँ, हुनका पाछाँ-पाछाँ चलला। बलाह नदीतीरमे स्थित परम भयानक श्मशान पहुँचला, जे श्मशान नाचैत बेताल सभक पदाघातसँ आतंकित डाकिनीक डमरू-निनादसँ, हजारो गिदड़िनीक भूकबसँ आ उद्वेगी राक्षस सभक क्रूर क्रीड़ासँ विकट छल। ओतऽ नदीमे नहेलापर राजा बलाहकेँ भैरवक दूत सभ मनुष्यक ताँतिसँ बान्हि धहधह जरैत आगिसँ तप्त तेल भरल कड़ाहमे फेकि देलक आ राजा अत्यन्त कष्टपूर्वक प्राणत्याग केलनि। हुनक निष्प्राण शरीर जखन तेलमे सुसिद्ध भऽ गेलनि तखन भगवती चामुण्डा प्रत्यक्ष भऽ ओहि मांसकेँ खेलनि। भगवती चामुण्डा परम सन्तुष्ट भऽ राजाक हड्डीकेँ अमृतसँ सिक्त कऽ पुन: हुनका ओहिना बना देलनि। पुन: जीवित राजा बलाह भगवतीकेँ प्रणाम केलनि आ वर मङलनि। बलाह बजला- ‘हे भगवती! दान-यशसँ प्रसिद्ध पुरुष जँ याचक लोकनिक मनोरथ पूर्ण करबामे समर्थ नञि होथि तँ मृत्युसँ बेसी कष्टकर! तेँ मृत्युकेँ स्वीकार कऽ याचक लोकनिक मनोरथकेँ पूर्ण करबाक कामनासँ भगवतीकेँ अपन मांससँ पूजन कयल। अत: हे जननी! हमर कामना पूर कयल जाय।’
देवी बजली- ‘बलाह! भोरे अहाँक द्वारिपर पहिने जकाँ सोनक मन्दिर प्रस्तुत होऽ।’ देवीक वरदान पाबि कृतार्थ भऽ बलाह अपन घर फिरि अयला।
विक्रमादित्य से सभ देखि सोचलनि- ‘वैतालिक सत्ये कहलक। बलाह वस्तुत: दानवीर थिका जे दानक हेतु प्रतिदिन अपन प्राण दऽ धन अर्जन करैत छथि। भगवती तँ दयामयी थिकी। तखन किए ने एके बेर प्राण-अर्पण साहससँ हिनका कृतार्थ करै छथि? अस्तु होअऽ दियौ अगिला राति, जे उचित थिक से करब। ई विचारि ओ राजद्वारपर जा कऽ अपन काज देखऽ लगला।
ओकरा दोसर राति मन्त्री आ सामन्त ओ भृत्य लोकनिसँ घेरल-बेढ़ल बलाह जा एकान्त हेबाक प्रतीक्षामे छला, ता साँझे राति जाबत नगरक लोकसभ सूतल नञि छल   ताबते बिनु दोसरकेँ संग नेने एकसरे विक्रमादित्य ओहि स्थानपर पहुँचला, स्नान कऽ खौलैत तेल भरल कड़ाहमे कूदि गेला। भीजल शरीरक मांससँ तेल कड़कड़ा उठल, से सूनि भगवती ओतऽ आबि मांस खेलनि, हुनका हड्डीकेँ अमृतसँ सिचलनि। जखन ओ जीबि उठला तखन हुनका बलाह बूझि भगवती वर देबाक इच्छा करिते छथि ताबत ओ फेर कड़ाहमे कूदि पड़ला। फेर भगवती हुनक मांस खेलनि। एहि प्रकारेँ बेरबेर ओ जियाओल गेला आ पुन: कड़ाहमे झम्प लैत गेला। एहन सात्विक स्वभाववला धीर पुरुष ई विक्रमादित्ये थिका से बुझि भगवती बजली- ‘हे विक्रमादित्य! अहाँपर तँ हम प्रसन्ने छी। अहाँकेँ आठो सिद्धि प्राप्ते अछि? हम तँ ने हुनक मांससँ आ ने अहाँक मांससँ तृप्त होइ छी, मात्र हम पुरुषक साहसक जाँच करबा लेल कृत्रिम भूख ओ तृप्ति देखबै छी। एखन हम अहाँक साहससँ सन्तुष्ट भेल छी। वर माङू।’
तखन विक्रमादित्य प्रणाम कऽ वर मङलनि। विक्रमादित्य कहलनि- ‘देवी! अहाँ जगन्माता छी, भक्तक प्रति वात्सल्य रखनिहार छी। बलाहक प्रति दया भेल तेँ अपनेक आराधना केलहुँ अछि जे बलाहकेँ मृत्युवरणक साहस बिनु केनहुँ हुनक द्वारिपर सोनक मन्दिर प्रस्तुत होइत रहौन।’
भगवती बजली- ‘तहिना होऽ।’
एहि प्रकारेँ वरदान प्राप्त कऽ विक्रमादित्य अपन राज्य फिरला। जे वैतालिक सत्यवार्ता कहने रहनि तकरा बजा, रत्न-वस्त्र आ घोड़ा-हाथी प्रदान कऽ पुरस्कृत केलनि। एमहर बलाह, जखन नगरक लोक सभ सूति रहल छल, जनशून्य रातिक निशाभागमे श्मशान पहुँला तँ किछु देखबामे नञि एलनि, मुदा आकाशवाणी सुनबामे एलनि- ‘हे बलाह! विक्रमादित्य अहाँक कष्टकेँ दूर कऽ गेल छथि।’ अर्थ स्पष्ट बुझबामे नञि एलनि तेँ गुनिधुनि करैत, भिनसर याचक लोकनिकेँ हम की देबनि एकर चिन्ता करैत घर जा पलंगपर पड़ि रहला, मुदा निद्रा नञि भेलनि। जागल-जागल करौटो नञि लेलनि, तैयो द्वारपाल प्राते आबि जगेलकनि। सोनक मन्दिर पहिने जकाँ द्वारिपर देखि ओ (बलाह) कृतार्थ भेला। प्रसंगसँ आकाशवाणीक अर्थ आब बुझबामे एलनि जे विक्रमादित्यक प्रसादसँ हमरा से सिद्धि भेटल जाहिसँ बेरबेर मरणक आयास-प्रयासक अपेक्षा नञि रहल। हुनक एहि निर्धारित विषयकेँ, वैतालिक सभामे आबि कऽ पुन: दोहरा कऽ कहलक।
विक्रम केसरी राजा पुरुष लोकनिमे पहिल उल्लेख हेबा योग्य छथि, जनिक दया दानवीरो केर विषयमे कल्पलता (मनोरथ साधक) सिद्ध भेल। 

Tuesday, 23 July 2013

शोणितक दाम

                                                   शोणितक दाम
                                                       -अमलेन्दु शेखर पाठक
श्आब हí क· रहल छी अहाँ सभÓ -मोद बाबू गरजला। श्एहन कतहु सुनबो ने केने रही हमरा लोकनि, आब हमरो सभक उमेर कम थोड़े रहल, अस्सी लगिचा देलियैÓ।
मोद बाबूक गरजबाक कोनो असरि नहि पड़ल। सभ एक-दोसराक मुँह मात्र तकैत रहल। कमल बाबूक चारू पुत्र अपनामे कटाउँझ करैते रहलथिन। के आगि देत से फरिछाए नहि रहल छल। जेठ बालक जयपालक अèािकारे बनै छनि, मुदा छोटका रामपालक कहब छनि जे ओ मोन खराब भेलापर एको बेर हुलकियो मार· नहि एलखिन। माझिल श्यामपाल सेहो आगि देबा लेल फाँड़ भिडऩे छथिन, मुदा पछिला जतरामे ओ मदन बाबूसँ लडि़ क· गेल छलथिन आ सौँसे समाज र्इ देखने छलनि तेँ बजबाक साहस नहि छलनि। ओना कनियाँ कहने रहथिन आगि देबा लेल। कारण जे आगि देतै तकरा बड़का अठकठबा भेटतै। बजबो केलनि, मुदा सझिला जनकपाल भाँजी मारि देलथिन- श्अहाँ आगि देबै से हमहीँ किए ने देबै, गाम èा· क· रहलहुँ हम आ आगि देबनि आहाँ सभ? नेरकम केलियनि हमरा लोकनि आ आगि देबा लेल आहाँ सभ उताहुल छी, लाजो नहि होइए?Ó
मोन तँ तिलमिला गेलनि, मुदा चुपे रहि गेला। आइ बोèा भ· रहल छनि जे गाम आबर-जात किए नहि करैत रहला। बाबू कूही भ· क· मरला। सभ दिन गाँजाक सोँट मारैत रहला जनकपाल आ आइ जे छोह देखा रहल छथि।
ओमहर गोपालकेँ किछु ने फुरा रहल छनि, की करथु? कोना क· कहथु अपन नाम। अपन नाम लैते हरबिर्रो ने मचि जाय। चारू भर नजरि खिरेलनि - श्मशान भूमिमे ठाढ़ छथि सभ लोक। कहै छै जे श्मशानमे आबि क· सभटा मोह मायासँ लोक मुä भ· जाइत अछि, मुदा एत· तँ उन्टे भ· रहल छै। सभ अपना अपनी दिस अठकठबा समेटबा लेल बेहाल अछि। सामने चिता सजल अछि आ ओहिपर कमल बाबूक शव पाड़ल छनि। एक कात गोँइठा सुनुगि रहल अछि। कमल बाबू एनमेन तेना जेना सूतल होथि। गोपालकेँ कमल बाबूक संग बितायल एक-एक पल स्मरण पडय़ लगलनि। ओ कमल बाबूक क्यौ नहि छथि। क्यौ नहि छथि माने, रä संबंèाी नहि छथि। ओना क्यौ कोना नहि छथि। नामो तँ हुनके देल छनि। अपन माय-बाप मोनो कहाँ छनि। पाँचे वर्षक रहथि जखन कमल बाबूकेँ लहेरियासराय टीसनपर भेटल रहथि। कहाँ दन तहिया ब³ला बजैत रहथि गोपाल, गोपाल नामो कहाँ कहने रहथि। किछु नाम कहने रहथि आ कमल बाबू गोपाल कहय लागल रहथिन। कमल बाबू तहिया युवके छला आ नोकरी तकै छला। बालो-बच्चा कहाँ भेल छलनि। जखन टीसनपर क्यौ नहि रखलनि आ गोपाल कनैत-कनैत लहालोट भ· गेला तँ अपना संग नेने एलथिन। कमल बाबूक पत्नी कुमुदिनी सेहो छाती सँ लगा लेलथिन। थोड़े दिन ताक हेर क· पुत्रवते राखि लेलथिन। गोपालक अबिते संयोग लगलै आ कमल बाबूकेँ प्रोफेसरी भेटि गेलनि। विवाहक दस वर्ष बीति गेल रहनि, मुदा कोनो संतान नहि भेल छलनि। दुनू बेकती दुखी रहै छला, से गोपालक अबिते कुमुदिनी मातृसुख पौलनि। अपनो संतान भेलनि, मुदा एहिसँ गोपालक मान-दानपर कोनो असरि नहि पड़लनि। दू पुत्रक बादे आपरेशन कराबय चाहै छला कमल बाबू, मुदा हुनका मायक जिदकेर समक्ष नतमस्तक भ· जाय पड़लनि। कुमुदिनीकेँ माय आ कमल बाबूकेँ बाबू कहै छला गोपाल। से माय अस्वस्थ रहय लगलथिन आ बाबूक समक्षे सभकेँ छोडि़ बिदा भ· गेली। ताबत जयपाल बीडीओ भ· गेल छलथिन। श्यामपालोकेँ रेलवेमे नोकरी भ· गेल छलनि। जनकपाल आर्इ.ए.एस. केर तैयारी लेल दिल्ली ओगरने छला आ रामपालकेँ आवारागदÊसँ फुर्सति नहि रहनि। गोपालकेँ जते भ· सकलनि निमेरा करैत रहला। माय खूब मोनसँ आशीर्वाद देने रहथिन। हुनकर अंतिम इच्छा रहनि पुतहुक मुँह देखबाक। गोपाल तैयार भ· गेला, मुदा कोनो भाइ ताहि लेल तैयार नहि। तहिया सभकेँ गोपाल अपन जेठके बुझेलथिन। गोपालक विवाह भ· गेलनि। मायक मनोरथ पूर भेलनि, मुदा गोपाल चाहैत रहथि जे सभ भाइ समर्थे छथिन, किए ने एके लगनमे सभक विवाह भ· जाय। मायोक मन रहनि, मुदा चुपे रहि गेल। कमल बाबू कहबो केलथिन, मुदा सभ भाइक जीवन वैयäकि भ· उठलनि। विवाह करबाक करबे केलनि, मुदा मायक देहांतक बाद। गोपालोक संग भाइ सभक दूरी बढय़ लगलनि आ ओहि दिन ओ पूरा-पूरी आन भ· गेलथिन जहिया पता लगलै जे बाबू जमीन पाँच भागमे बाँटि देने छथि। सभ भाइ विæोहपर उतरि एला। कमल बाबूसँ सभक कहा-सुनी èारि भ· गेलनि। गोपाल सेहो बुझौलकनि, मुदा बाबू नहि मानलथिन आ अपन सप्पत द· चुप क· देलथिन। भाइ सभक इच्छा रहनि जे गोपाल घर छोडि़ देथि। गोपाल कतेको बेर कानाफुस्सी सुनबो केलनि, मुदा गबदी मारि देलनि। जाबत बाबू छथिन ताबत रहता। छोडि़ क· चलि जेता तँ हुनका के देखतनि? आ गोपालक र्इ निर्णय ठीके रहलनि। परुकाँ बाबू बीमार पडि़ गेलथिन। देह सुखा गेलनि। अस्पतालमे भतÊ कयल गेलनि। जेठका जयपालकेँ फुर्सतिए नहि भेटलनि जे देखियो जैतथिन। माँझिल श्यामपाल एलखिन जरूर, मुदा रä देबाक बात सुनिते मोन बì खराब भ· गेलनि। जखन अपने अस्वस्थ रहथि तखन बाबूकेँ रä कोना दितथिन। रामपालकेँ पत्नी साफ मना क· देलथिन। जनकपाल ताबत नहि भेटलथिन जाबत खूनक ब्यौत नहि भ· गेलै। गोपाल एहि लेल प्रस्तुत छलाहे। पूरे चारि बोतल खून देलथिन। तीन बोतलक बाद डाक्टर साफ मना क· देलकनि श्आब खून लेने खतरा भ· सकै छैÓ। गोपाल नहि मानलनि। बाबू लेल जान चलियो जेतनि तँ की हेतै? जीवनो तँ हुनके देल छनि। बाबूकेँ जखन पता लगलनि तँ भरि पाँज èा· लेलथिन आ कहलथिन श्बौआ खाली मायक पेटेसँ जनमलासँ क्यौ ककरो बेटा नहि होइ छै से तोँ सिद्ध क· देलेँ...तोँ नहि रहितेँ तँ बेटा अछैतो निपुत्रे रहि जैतहुँ...हमरा लग तोरा पठा क· भगवान संतान-सुख बुझबाक अवसर देलनि...हे एगो बात कहै छियौ, जखन मरि जाइ तँ तोहीँ आगि दिहेँ। आन देत तँ आत्मा काहि काटत, तोँ देबेँ तँ जुड़ा जायत बौआÓ।
गोपाल गछि तँ लेलनि, मुदा बुझै छला जे प्रस्ताव दैते समाजो विरोèामे ठाढ़ भ· जायत। कोन जाति-èार्मक छथि सेहो तँ पता नहि। आ अखन,जखन समाज तय क· देलकै जे आगि देनिहारकेँ अठकठबा भेटतै, सभ भैयारी एहि लेल मारि ठनने छथि। अठकठबा तय होयबासँ पूर्व ककरो फुर्सति नहि छलनि तँ किनको मन खराब छलनि। आब मुर्दा पड़ल अछि आ सभ अठकठबापर गिद्ध जकाँ èयान लगेने छथि। की करथु गोपाल, बाबूक अंतिम इच्छा पूरा करबा लेल आगि देबा लेल अपन नाम कहथुन की नहि?...कहीँ तेसरे बखेरा ने भ· जाय। किछु निर्णय नहि क· पाबि रहल छथि। भीतरसँ अबाज उठलनि-श्अपनाकेँ सुरक्षित रखबा लेल चुप रहि जेताÓ। हठात उठला आ जयपालकेँ कहलथिन जे आगि ओ देता। जेना एकेबेर खरक आगि जकाँ सभ èाुèाुआ उठल। जयपाल सोझे आरोपो लगा देलथिन- श्खूनक दाममे अठकठबा चाहै छी?Ó
गोपाल सन्न रहि गेला। जयपाल एते खसि पड़ता से सोचनहुँ नहि छला। अवाक रहि गेला गोपाल। थोड़े काल बोले नहि फुटलनि, कने कालक बाद कहलथिन- श्बाबूक इच्छा रहनि तेँ, अठकठबा अहीँ सभ बाँटि लेबÓ। आब गौओँ सभ सुगबुगयला- र्इ कोना हेतै? अपन पुत्र अछैत आनक जनमल आगि देतै? देयादो रहितनि तँ ठीक छल। गोपाल भीतरे-भीतर कूही भ· उठला- भगवान हिनके कोखिमे किए ने जन्म देलथिन। कमल बाबू सन साèाु पुरुषक हाल भीतर èारि हिला देलकनि। आश्चर्य होइ छनि गोपालकेँ- एक टा माय कि बाप चारि टा संतानकेँ पोसि लै छै, मुदा चारि टा संतान मिलि एकटाकेँ नहि पोसि पबैए। गोपालक प्रस्तावपर भाइ सभ तँ तैयार भ· गेलथिन, आब समाजे विरोèामे ठाढ़ भ· गेलनि।
ताबत राजेÜवर बाबू ओकील हपसैत पहुँचि गेलथिन। ओ दाह संस्कार नहि होयबाकेँ नीक मानि रहल छला। कमल बाबू हुनका एगो लिफाफ देने रहथिन। कहने रहथिन जे हुनक मृत्युक बाद दाह संस्कार होयबासँ पूर्व खोलबाक निर्देश देने रहथिन, से कमल बाबूक देहांतक जानकारी भेलापर गंगापुरसँ सोझे दौड़ल गामपर गेला आ शव श्मशान चलि जेबाक बात सुनि सोझे एत· एला अछि। उपसिथत लोक सभमे हबगब शुरू भ· गेल। किनको मत रहनि जे कमल बाबू सभटा संपत्ति गोपालक नाम क· देने हेथिन तँ क्यौ एकरा गोपालक चलाकी मानि रहल छला। ओमहर चारू भाइकेर चेहरा निश्तेज भ· उठल छलनि। सभ एक-दोसराक मुँह देखि रहल छला। राजेÜवर बाबू लिलाफ फोललनि। सभ लोक हुनका घेरि लेलकनि। लिफाफसँ एगो कागत बहरायल जाहिपर लिखल छल जे श्हुनका आगि देथि श्री...पालÓ। आब भारी फेरी लागल। कागतमे पूरा नाम किनको नहि। श्पालÓ शब्दसँ पहिने सादा छलै। सभ भाइ तर्क देबय लगला। सभक यैह कहब जे बाबू हुनके नाम लिखय चाहै छला। बूढ़ रहथि से अक्षर छूटि गेलनि, मुदा एहिसँ निदान तँ नहि बहरायत। किछु लोक एहि लेल कमल बाबूकेँ सेहो लोक नीक-बेजाय कहय लगलनि। कमल बाबू रहथि मखौलिया। जाबत जीला सभकेँ हँसबैते रहला, मुदा किछु लोककेँ हुनक र्इ स्वभाव नीक लगनि तँ किछु गोटे भीतरे-भीतर डाहो रखै छला। कमल बाबू अपना पत्नीयोकेँ परिहास करैत रहै छलथिन। दलसिंहसराय कालेज जाथि आ अयबामे बेसी दिन भ· जानि तँ कहियो तेना अक्षर उन्टा क· चि-ी लिखि देथिन जे ककरो चलबे ने करै, मुदा कुमुदिनी आ गोपालकेँ बुझा देने रहथिन। कहियो सामने अयना राखि ओहिमे सभटा खेरहा पढ़ा जाय तँ कहियो शीर्षक नीचा क· अयनाक समक्ष पत्र रखलापर पढ़ाय, मुदा आइ तँ किछु लिखले नहि छै। गोपालोक बुद्धि काज नहि क· रहल छनि। एही बीच राजेÜवर बाबूक हाथसँ कागज उèािया गेलनि आ सोझे èाुआँइत गोँइठापर जा क· खसलै। जाबत लोक उठाबय-उठाबय ता कागत कुड़कुड़ा गेलै आ श्पालÓ शब्दसँ पहिने चमकि उठलै अक्षर श्गोÓ, आब शब्द पूरा भ· क· गोपाल भ· गेल छलै। हलसि उठला गोपाल आ मुखागिन दैत बाजि उठला श्तोँ सभ की देबह खूनक दाम, दाम तँ देलनि बाबूÓ। आ बुक्का फाडि़ क· कानि उठला गोपाल  श्बाबू यो बाबू... अगिलो बेर जन्म ली तँ अहीँ बाप होइ यो बाबूÓ।