Tuesday, 1 January 2013

धैर्य


  

धैर्य
‘आहि रे बा, की भऽ गेलनि बाबूकेँ भोरे कहलनि जे अखन रहता आ लगले मोटरी बान्हि रहल छथि।’ - कनिञाक बातपर गजेन्द्रक ध्यान भंग भेलनि। संगीक संग बातमे डूबल छला। धड़फड़ाएल घरमे एला। देखै छथि जे पिता झोरामे अपन धोती-कुर्ता-गमछा आदि समेटि रहल छथिन। पुछलापर पिता कहलथिन आब नञि रहब। गाम चलि जायब। गजेन्द्र जिदिएला- ‘की भेल, किए एकाएक जेबाक नेयार कऽ लेलहुँ? क्यौ किछु कहि देलक की?’ गजेन्द्र धीयापुतापर छुटला तँ पिता रोकलथिन- ‘एकरा सभकेँ किछु नञि कहऽ एकरा सभक कोनो दोख नञि छै।’
‘मत्त तोरी के, तखन भेल की? किछुओ तँ बाजू’- गजेन्द्र खौँझेला।
पिता कहलथिन- ‘तोहर संगी आयल छथुन तिनका दऽ पुछलियऽ तँ झपटलऽ किए?’
‘आहि रे बा, कहाँ किछु कहलहुँ? हम तँ एतबे ने कहलहुँ जे अहाँ नञि चिन्हबै।’- गजेन्द्र हतप्रभ सन कहलनि।
पिता गम्भीर भऽ उठलथिन- ‘बौआ आइ भने तोँ बीडीओ भऽ गेलऽ, मुदा कहियो अबोध नेना सेहो छलऽ। तहिया तोँ पुछै छलऽ बाबू ई की छै, हम उत्तर दै छलियऽ कौआ, तोँ फेर पूछै छलऽ ई की छै आ हम फेर उत्तर दै छलियऽ कौआ, तोँ बीसो बेर पुछै छलऽ आ हम सभ बेर उत्तर दै छलियऽ। एको बेर नञि खौँझेलियऽ आ तोँ एके बेरमे झपटि लेलऽ, नञि आब एतऽ नञि रहबऽ। एहन अधीर पीढ़ी लग रहि कऽ की करब?’ पिता गाम बिदा भऽ गेलथिन।
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