आधुनिक महिषासुरक संहार लेल आउ करी क्रोध
- अमलेन्दु शेखर पाठक
शारदीय नवरात्र आरम्भ भऽ गेल अछि। भगवतीक आराधनामे जनमन लीन भऽ रहल अछि। घरसँ बाहर धरि दुर्गा सप्तशतीक श्लोक अनुगुञ्जि भऽ रहल अछि- ‘या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।’ दस दिन धरि सौँसे मिथिलाक भक्तिक धारमे उभचुभ करत। पञ्चदेवोपासक मिथिलामे ओना तँ सभ देवी-देवताक पूजन समान आस्था आ विश्वासक संग होइ छनि, मुदा शक्तिक प्रति कने बेसी समर्पण रहल अछि। से देखबोमे आबि रहल अछि। मिथिलाक घर-घर, गाम-गाम आ नगर-नगर माताक आराधनामे रमल अछि। सार्वजनिक पूजाक आयोजनक संख्यो निरन्तर बढ़ल जा रहल अछि। जतऽ एक नगरमे गोटेक ठाम सार्वजनिक पूजा होइ छल ओहि ठाम दर्जनो ठाम पूजन भऽ रहल अछि। सार्वजनिक समितिक बढ़बाक क्रम तेहन सन अछि जे अगिला किछु बरखमे ई महल्ले-महल्ले भऽ जायत। गामोक हाल एहने अछि। पहिने दस-पन्द्रह-बीस गामपर एक ठाम सार्वजनिक पूजा होइ छल, से गामे-गाम हेबा दिस अग्रसर अछि। महिषासुरमर्दिनी भगवतीक प्रति बढ़ैत ई आस्था आ आकर्षण नीके कहल जायत, मुदा जखन एहि पूजनक प्रतिफलपरगम्भीरतासँ विचार करब तँ उछाह मन्द पड़ि जायत। शक्तिक अधिष्ठात्री माता दुर्गाक आराधना करबाक पाछाँ सभक एके उद्देश्य रहैत अछि कल्याण। किनको अपन आ परिजनक कल्याण कामना रहै छनि, तँ क्यौ जनकल्याण कहि अपन प्रयासकेँ विस्तार देबाक बात कहै छथि, मुदा की ठीके कल्याण भऽ रहल अछि? वर्त्तमान परिवेश कहि रहल अछि जे पूजनक सकारात्मक परिणाम रञ्चो मात्र कहाँ भेटि रहल अछि? से व्यक्तिगतो आ सार्वजनिको जीवनमे।
भहरि जाइए समर्पण
दस दिनक एहि पावन अवसरमे हमरा लोकनि सात्विक जीवन व्यतीत करै छी। लाखो शक्ति-उपासक भरि दसमी एके साँझ भोजन करै छथि। ओहो अरबा-अरबाइन। कते फलेपर दस दिन बितबै छथि। एहनो भक्त छथि जे जल छोड़ि आन किछु नञि ग्रहण करै छथि। भगवतीक प्रति अखण्ड आस्थेक परिणाम अछि जे कतेको गोटे छातीपर आ कि जाँघपर कलश स्थापित कऽ जयन्ती उगबै छथि। ओ दसो दिन निराहार रहै छथि। एहिमे पूर्णत: सफल रहै छथि। एहन भक्तोक संख्या कम नञि अछि। भरि मिथिलामे हजारो तँ अवश्य हेता। देवीक प्रति हृदयमे विश्वास रखनिहार समाज आ लोक भारत राष्टÑ छोड़ि अन्यत्र भेटब असम्भव। मुदा विडम्बना अछि जे ई समर्पण लगले भहरि जाइए। पूजा समाप्त होइते मानसिकता पल भरिमे बदलि जाइए। क्यौ देवी स्वरूपा पुतहुकेँ किछु टाका आ मोटर-गाड़ी लेल डाहबामे लागि जाइ छी, तँ क्यौ अपन धी-बेटीक विवाह लेल विवाह योग्य बेटीक ओहि बापक हिस्सा हड़पऽमे जुटि जाइ छी जे मेहनत-मजुरियो कऽ एहि सपनाकेँ पूरा करबामे अक्षम रहैत अछि। उचित-अनुचितक कोनो अर्थ नञि रहि जाइत अछि।
कोना करब कुमारिकार्चन
दसमीमे कुमारि पूजनक विधान अछि। मानल जाइत अछि जे कुमारि पूजने प्रमुख अछि। लोक पूरा श्रद्धाक संग कुमारि पूजन करै छथि। कुमारि बच्चीकेँ निमंत्रित कऽ अष्टमी तथा नवमी दिन तँ घरे-घर भोजन कराओल जाइत अछि। कतेको दसो दिन कुमारिकेँ भोजन करबै छथि। कुमारिक आदरक संग पैर धोअल जाइ छनि। तेल-कूर लगाओल जाइ छनि। सिन्दूरक ठोप कयल जाइ छनि। हाथ-पैर आ नह रङल जाइ छनि। नव वस्त्रमे अरबा चाउर, श्रृंगार प्रसाधन आदि दऽ खोँइछ भरल जाइ छनि। तखन भोजन परसि हुनका अगरबत्ती-धूप देखाओल जाइ छनि। भोजनक उपरान्त छोट-छोट बच्चीकेँ ओही श्रद्धाक संग पैर छूबि प्रणाम कयल जाइत अछि जे श्रद्धा भगवती दुर्गाक लेल रहैत अछि। ई घरे-घर तँ देखबा लेल भेटिते अछि, कतेको गाममे भरि गामक बेटीकेँ निमंत्रण दऽ सामूहिक रूपसँ कुमारिकार्चन होइत अछि। सार्वजनिक पूजा समिति सभ सेहो ई करैत अछि। सभक मनमे एके रंग श्रद्धा-विश्वास-आस्था, मुदा पूजा समाप्त होइते ई आस्था-श्रद्धा लुप्त भऽ जाइत अछि। से नञि होइत तँ जाहि बेटी जातिक चरणमे हम अपनाकेँ समर्पित करै छी ताहिसँ अभाँछ किए? लिंग परीक्षण किए? भ्रूण हत्या किए? हालति ई अछि जे जँ हमरा लोकनि एखन अपनाकेँ अपन सांस्कृतिक चेतनासँ पूरापूरी नञि जोड़ि सकलहुँ तँ आबऽ वला दिनमे कुमारिकार्चन आ कि कुमार पूजन-भोजन नञि कऽ सकब। कोना करब, जखन धी-बेटी रहती तखन ने ई सभ होयत। कने अपना टोल-महल्लामे नजरि घुमा कऽ देखब तँ एहि सत्यक पता चलत। एखने हाल अछि जे एकहक कुमार दसो-पन्द्रह ठामसँ निमंत्रित होइ छथि। दसमीमे सभ साल लोक बच्ची नञि भेटबाक बात कहै छथि। पूजाक बाद वैह डाक्टर लग लिंग परीक्षण लेल पहुँचि जाइ छथि। जँ हम अपन एहि मानसिकताकेँ नञि बदलै छी तँ दुर्गा पूजामे कतबो किए ने अनुष्ठान कऽ ली, भगवती प्रसन्न नञि हेती आ कल्याणक अपेक्षा दिवास्वप्न टा रहि जायत।
सजीव भगवतीक अपमान
हमरा लोकनिक चरित्रमे विरोधाभास स्पष्ट रूपसँ देखबामे आबि रहल अछि। मातृशक्तिकेँ सर्वोपरि मानि हमरा लोकनि कलशस्थापनसँ विजयादशमी धरि जाहि तरहेँ माताक पूजा-अर्चना करै छी ओ लगले समाप्त भऽ जाइत अछि। माटिक प्रतिमाक चरणमे अपनाकेँ अर्पित करबा लेल उताहुल रहै छी, मुदा सजीव भगवतीक प्रति पशुवत भऽ उठै छी। तेँ ने अबोध बच्ची पर्यन्तक संग संग दुराचार केर घटना नित्य प्रति कतहु ने कतहुसँ अबिते रहैत अछि। एहि विरोधाभासी व्यवहारक परित्याग करब तखन ने कल्याणक फल पायब। एहि लेल ओहि पाश्चात्यक मोह त्यागऽ पड़त जे नारीकेँ उपभोगक वस्तु मात्र बुझैत अछि। ओकर देह-यष्टि मात्रकेँ महत्व दैत अछि। हमरा लोकनिकेँ एहिसँ बचबा लेल अपना माटि-पानि, अपन संस्कृति, अपन चिन्तनक लेल अपना भीतर मोह उत्पन्न करऽ पड़त। अपन ओहि संस्कृतिक मोह जे नारीकेँ पूज्या बनबैत अछि। जँ एहि भावकेँ अपना हृदयमे समेटि नञि सकलहुँ तखन कल्याण कोना?
त्यागऽ पड़त बाह्याडम्बर
पाश्चात्यक प्रति रुखि बाह्य आडम्बरकेँ निरन्तर बढ़बैत जा रहल अछि। भने भक्तक हृदयमे श्रद्धाक हिलोर उठैत रहओ, आयोजक एहि दिशामे अपवादे स्वरूप गम्भीर भेटता। अधिकांश ठाम आयोजनमे शास्त्रीयता दोसर स्थानपर आबि गेल अछि। पहिल स्थानपर चाक-चिक्य आबि गेल अछि। शोभा यात्रा बहार करबाक चिन्ता बेसी कयल जाइत अछि, समयपर पूजा-अर्चनाक कमे ठाम। ई सभ भऽ रहल अछि अपन मूल संस्कृतिक प्रति गौरवक अभाव आ ओकरा महत्वहीन बुझबाक कारणेँ। तेँ एहि अवसरपर जँ कोनो गीत-संगीतक आयोजनो होइत अछि तँ ओ शुद्ध सांस्कृतिक नञि होइत अछि। एहि नामपर फूहड़ताकेँ प्रश्रय भेटैत अछि जे कोनो अर्थे कल्याण नञि कऽ सकैत अछि। कल्याण लेल आबऽ पड़त अपन सांस्कृतिक परम्पराक शरणमे।
समन्वित शक्तिक चाही योग्यता
आउ जनकल्याणक लेल मिलि कऽ एकसंग करी क्रोध। क्रोधकेँ अधलाह मानल गेल अछि। आधुनिक विज्ञानो एकरा अधलाह मानैत अछि। अपना ओहि ठामक चिन्तनो। कहै छै जे क्रोध बहुत रास रोगकेँ जन्म दैत अछि। क्रोधकेँ ओहि जरैत लकड़ीक समान मानल गेल अछि जे पहिने अपने जरैत अछि तखन सम्पर्कमे एनिहारक अहित करैत अछि। मुदा भगवती दुर्गाक आविर्भाव क्रोधेसँ भेलनि। जखन आततायी महिषासुरसँ पीड़ित-सीदित देवगण शिव आ विष्णु लग पहँुचला आ दानव द्वारा सभ देवताकेँ देवलोकसँ खेहारि देल जेबाक बात कहलनि तँ भगवान शंकर आ विष्णुकेँ क्रोध भेलनि। हुनक भौँह चढ़ि गेलनि। क्रोधे मुँह विकृत भऽ उठलनि आ ओहिसँ एकगोट तेज बहार भेल। सभ देवता मिलि अपन-अपन तेजकेँ समन्वित केलनि आ भगवतीक आविर्भाव भेलनि। हुनका सभ देवता अपन अस्त्र-शस्त्रसँ सुसज्जित केलनि। तखन सभक समन्वित शक्तिसँ युक्ता भगवती महिषासुरक संहार केलनि। आधुनिक महिषासुरक वध लेल सेहो एहने समन्वित शक्ति चाही। हँ एहि लेल चाही अपनामे शक्ति जकरा समन्वित करब। एहि शक्ति-सञ्चय लेल भगवान शंकर, विष्णु, ब्रह्मा आदि देवता सन सामर्थ्य चाही, तखने ने हमरा सभक समवेत शक्तिसँ उत्पन्न भऽ सकती कोनो दुर्गा जे आधुनिक असुरक नाश करती। आउ एहि लेल अपनाकेँ तदनुकूल बनाबी। एहि लेल माता दुर्गासँ माङी आशीष। एहि लेल दृढ़ता चाही। शुद्ध-सात्विक आचरण चाही। एखन तँ सगरो महिषासुरेक शक्ति एकत्रित नजरि अबैत अछि। एहिसँ भगवती दुर्गा त्राण देआबथि आ हमरा तेहन शक्ति-सम्पन्न आचारवान बनाबथि जे हुनके सन दुष्टमर्दिनी मातृशक्ति प्राप्त करबामे सक्षम होइ ताहि लेल तँ हुनके चरणमे शरण।
- अमलेन्दु शेखर पाठक
शारदीय नवरात्र आरम्भ भऽ गेल अछि। भगवतीक आराधनामे जनमन लीन भऽ रहल अछि। घरसँ बाहर धरि दुर्गा सप्तशतीक श्लोक अनुगुञ्जि भऽ रहल अछि- ‘या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।’ दस दिन धरि सौँसे मिथिलाक भक्तिक धारमे उभचुभ करत। पञ्चदेवोपासक मिथिलामे ओना तँ सभ देवी-देवताक पूजन समान आस्था आ विश्वासक संग होइ छनि, मुदा शक्तिक प्रति कने बेसी समर्पण रहल अछि। से देखबोमे आबि रहल अछि। मिथिलाक घर-घर, गाम-गाम आ नगर-नगर माताक आराधनामे रमल अछि। सार्वजनिक पूजाक आयोजनक संख्यो निरन्तर बढ़ल जा रहल अछि। जतऽ एक नगरमे गोटेक ठाम सार्वजनिक पूजा होइ छल ओहि ठाम दर्जनो ठाम पूजन भऽ रहल अछि। सार्वजनिक समितिक बढ़बाक क्रम तेहन सन अछि जे अगिला किछु बरखमे ई महल्ले-महल्ले भऽ जायत। गामोक हाल एहने अछि। पहिने दस-पन्द्रह-बीस गामपर एक ठाम सार्वजनिक पूजा होइ छल, से गामे-गाम हेबा दिस अग्रसर अछि। महिषासुरमर्दिनी भगवतीक प्रति बढ़ैत ई आस्था आ आकर्षण नीके कहल जायत, मुदा जखन एहि पूजनक प्रतिफलपरगम्भीरतासँ विचार करब तँ उछाह मन्द पड़ि जायत। शक्तिक अधिष्ठात्री माता दुर्गाक आराधना करबाक पाछाँ सभक एके उद्देश्य रहैत अछि कल्याण। किनको अपन आ परिजनक कल्याण कामना रहै छनि, तँ क्यौ जनकल्याण कहि अपन प्रयासकेँ विस्तार देबाक बात कहै छथि, मुदा की ठीके कल्याण भऽ रहल अछि? वर्त्तमान परिवेश कहि रहल अछि जे पूजनक सकारात्मक परिणाम रञ्चो मात्र कहाँ भेटि रहल अछि? से व्यक्तिगतो आ सार्वजनिको जीवनमे।
भहरि जाइए समर्पण
दस दिनक एहि पावन अवसरमे हमरा लोकनि सात्विक जीवन व्यतीत करै छी। लाखो शक्ति-उपासक भरि दसमी एके साँझ भोजन करै छथि। ओहो अरबा-अरबाइन। कते फलेपर दस दिन बितबै छथि। एहनो भक्त छथि जे जल छोड़ि आन किछु नञि ग्रहण करै छथि। भगवतीक प्रति अखण्ड आस्थेक परिणाम अछि जे कतेको गोटे छातीपर आ कि जाँघपर कलश स्थापित कऽ जयन्ती उगबै छथि। ओ दसो दिन निराहार रहै छथि। एहिमे पूर्णत: सफल रहै छथि। एहन भक्तोक संख्या कम नञि अछि। भरि मिथिलामे हजारो तँ अवश्य हेता। देवीक प्रति हृदयमे विश्वास रखनिहार समाज आ लोक भारत राष्टÑ छोड़ि अन्यत्र भेटब असम्भव। मुदा विडम्बना अछि जे ई समर्पण लगले भहरि जाइए। पूजा समाप्त होइते मानसिकता पल भरिमे बदलि जाइए। क्यौ देवी स्वरूपा पुतहुकेँ किछु टाका आ मोटर-गाड़ी लेल डाहबामे लागि जाइ छी, तँ क्यौ अपन धी-बेटीक विवाह लेल विवाह योग्य बेटीक ओहि बापक हिस्सा हड़पऽमे जुटि जाइ छी जे मेहनत-मजुरियो कऽ एहि सपनाकेँ पूरा करबामे अक्षम रहैत अछि। उचित-अनुचितक कोनो अर्थ नञि रहि जाइत अछि।
कोना करब कुमारिकार्चन
दसमीमे कुमारि पूजनक विधान अछि। मानल जाइत अछि जे कुमारि पूजने प्रमुख अछि। लोक पूरा श्रद्धाक संग कुमारि पूजन करै छथि। कुमारि बच्चीकेँ निमंत्रित कऽ अष्टमी तथा नवमी दिन तँ घरे-घर भोजन कराओल जाइत अछि। कतेको दसो दिन कुमारिकेँ भोजन करबै छथि। कुमारिक आदरक संग पैर धोअल जाइ छनि। तेल-कूर लगाओल जाइ छनि। सिन्दूरक ठोप कयल जाइ छनि। हाथ-पैर आ नह रङल जाइ छनि। नव वस्त्रमे अरबा चाउर, श्रृंगार प्रसाधन आदि दऽ खोँइछ भरल जाइ छनि। तखन भोजन परसि हुनका अगरबत्ती-धूप देखाओल जाइ छनि। भोजनक उपरान्त छोट-छोट बच्चीकेँ ओही श्रद्धाक संग पैर छूबि प्रणाम कयल जाइत अछि जे श्रद्धा भगवती दुर्गाक लेल रहैत अछि। ई घरे-घर तँ देखबा लेल भेटिते अछि, कतेको गाममे भरि गामक बेटीकेँ निमंत्रण दऽ सामूहिक रूपसँ कुमारिकार्चन होइत अछि। सार्वजनिक पूजा समिति सभ सेहो ई करैत अछि। सभक मनमे एके रंग श्रद्धा-विश्वास-आस्था, मुदा पूजा समाप्त होइते ई आस्था-श्रद्धा लुप्त भऽ जाइत अछि। से नञि होइत तँ जाहि बेटी जातिक चरणमे हम अपनाकेँ समर्पित करै छी ताहिसँ अभाँछ किए? लिंग परीक्षण किए? भ्रूण हत्या किए? हालति ई अछि जे जँ हमरा लोकनि एखन अपनाकेँ अपन सांस्कृतिक चेतनासँ पूरापूरी नञि जोड़ि सकलहुँ तँ आबऽ वला दिनमे कुमारिकार्चन आ कि कुमार पूजन-भोजन नञि कऽ सकब। कोना करब, जखन धी-बेटी रहती तखन ने ई सभ होयत। कने अपना टोल-महल्लामे नजरि घुमा कऽ देखब तँ एहि सत्यक पता चलत। एखने हाल अछि जे एकहक कुमार दसो-पन्द्रह ठामसँ निमंत्रित होइ छथि। दसमीमे सभ साल लोक बच्ची नञि भेटबाक बात कहै छथि। पूजाक बाद वैह डाक्टर लग लिंग परीक्षण लेल पहुँचि जाइ छथि। जँ हम अपन एहि मानसिकताकेँ नञि बदलै छी तँ दुर्गा पूजामे कतबो किए ने अनुष्ठान कऽ ली, भगवती प्रसन्न नञि हेती आ कल्याणक अपेक्षा दिवास्वप्न टा रहि जायत।
सजीव भगवतीक अपमान
हमरा लोकनिक चरित्रमे विरोधाभास स्पष्ट रूपसँ देखबामे आबि रहल अछि। मातृशक्तिकेँ सर्वोपरि मानि हमरा लोकनि कलशस्थापनसँ विजयादशमी धरि जाहि तरहेँ माताक पूजा-अर्चना करै छी ओ लगले समाप्त भऽ जाइत अछि। माटिक प्रतिमाक चरणमे अपनाकेँ अर्पित करबा लेल उताहुल रहै छी, मुदा सजीव भगवतीक प्रति पशुवत भऽ उठै छी। तेँ ने अबोध बच्ची पर्यन्तक संग संग दुराचार केर घटना नित्य प्रति कतहु ने कतहुसँ अबिते रहैत अछि। एहि विरोधाभासी व्यवहारक परित्याग करब तखन ने कल्याणक फल पायब। एहि लेल ओहि पाश्चात्यक मोह त्यागऽ पड़त जे नारीकेँ उपभोगक वस्तु मात्र बुझैत अछि। ओकर देह-यष्टि मात्रकेँ महत्व दैत अछि। हमरा लोकनिकेँ एहिसँ बचबा लेल अपना माटि-पानि, अपन संस्कृति, अपन चिन्तनक लेल अपना भीतर मोह उत्पन्न करऽ पड़त। अपन ओहि संस्कृतिक मोह जे नारीकेँ पूज्या बनबैत अछि। जँ एहि भावकेँ अपना हृदयमे समेटि नञि सकलहुँ तखन कल्याण कोना?
त्यागऽ पड़त बाह्याडम्बर
पाश्चात्यक प्रति रुखि बाह्य आडम्बरकेँ निरन्तर बढ़बैत जा रहल अछि। भने भक्तक हृदयमे श्रद्धाक हिलोर उठैत रहओ, आयोजक एहि दिशामे अपवादे स्वरूप गम्भीर भेटता। अधिकांश ठाम आयोजनमे शास्त्रीयता दोसर स्थानपर आबि गेल अछि। पहिल स्थानपर चाक-चिक्य आबि गेल अछि। शोभा यात्रा बहार करबाक चिन्ता बेसी कयल जाइत अछि, समयपर पूजा-अर्चनाक कमे ठाम। ई सभ भऽ रहल अछि अपन मूल संस्कृतिक प्रति गौरवक अभाव आ ओकरा महत्वहीन बुझबाक कारणेँ। तेँ एहि अवसरपर जँ कोनो गीत-संगीतक आयोजनो होइत अछि तँ ओ शुद्ध सांस्कृतिक नञि होइत अछि। एहि नामपर फूहड़ताकेँ प्रश्रय भेटैत अछि जे कोनो अर्थे कल्याण नञि कऽ सकैत अछि। कल्याण लेल आबऽ पड़त अपन सांस्कृतिक परम्पराक शरणमे।
समन्वित शक्तिक चाही योग्यता
आउ जनकल्याणक लेल मिलि कऽ एकसंग करी क्रोध। क्रोधकेँ अधलाह मानल गेल अछि। आधुनिक विज्ञानो एकरा अधलाह मानैत अछि। अपना ओहि ठामक चिन्तनो। कहै छै जे क्रोध बहुत रास रोगकेँ जन्म दैत अछि। क्रोधकेँ ओहि जरैत लकड़ीक समान मानल गेल अछि जे पहिने अपने जरैत अछि तखन सम्पर्कमे एनिहारक अहित करैत अछि। मुदा भगवती दुर्गाक आविर्भाव क्रोधेसँ भेलनि। जखन आततायी महिषासुरसँ पीड़ित-सीदित देवगण शिव आ विष्णु लग पहँुचला आ दानव द्वारा सभ देवताकेँ देवलोकसँ खेहारि देल जेबाक बात कहलनि तँ भगवान शंकर आ विष्णुकेँ क्रोध भेलनि। हुनक भौँह चढ़ि गेलनि। क्रोधे मुँह विकृत भऽ उठलनि आ ओहिसँ एकगोट तेज बहार भेल। सभ देवता मिलि अपन-अपन तेजकेँ समन्वित केलनि आ भगवतीक आविर्भाव भेलनि। हुनका सभ देवता अपन अस्त्र-शस्त्रसँ सुसज्जित केलनि। तखन सभक समन्वित शक्तिसँ युक्ता भगवती महिषासुरक संहार केलनि। आधुनिक महिषासुरक वध लेल सेहो एहने समन्वित शक्ति चाही। हँ एहि लेल चाही अपनामे शक्ति जकरा समन्वित करब। एहि शक्ति-सञ्चय लेल भगवान शंकर, विष्णु, ब्रह्मा आदि देवता सन सामर्थ्य चाही, तखने ने हमरा सभक समवेत शक्तिसँ उत्पन्न भऽ सकती कोनो दुर्गा जे आधुनिक असुरक नाश करती। आउ एहि लेल अपनाकेँ तदनुकूल बनाबी। एहि लेल माता दुर्गासँ माङी आशीष। एहि लेल दृढ़ता चाही। शुद्ध-सात्विक आचरण चाही। एखन तँ सगरो महिषासुरेक शक्ति एकत्रित नजरि अबैत अछि। एहिसँ भगवती दुर्गा त्राण देआबथि आ हमरा तेहन शक्ति-सम्पन्न आचारवान बनाबथि जे हुनके सन दुष्टमर्दिनी मातृशक्ति प्राप्त करबामे सक्षम होइ ताहि लेल तँ हुनके चरणमे शरण।
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