Thursday, 17 October 2013

कोजागरापर सगरो छिड़िआयत हँसी चान आ मखान

         कोजागरापर सगरो छिड़िआयत हँसी चान आ मखान 

                                                      - अमलेन्दु शेखर पाठक

आसिन मासक पूनिम केर चान अपन मुस्की सगरो बाँटत। धरतीक कण-कणकेँ अपन इजोरियासँ स्नान करा जुड़ा देत। ओ अपन अमृत कलश छिलकेता। लोक मान्यताक अनुसार
आश्विन पूर्णिमाक राति चान अमृत बरसबै छथि। एमहर धरतीक चान फोँका मखान सेहो अपन हँसी छिड़िआयत। ओकरा संग दहीक मटकूर किंवा छाँछी आ बताशा ठहक्का लगायत। ई सभ होयत नव विवाहित वरक लेल मिथिलाक प्रसिद्ध पर्व कोजागरापर। ई पाबनि तँ होइ छनि ओहि नव विवाहित वरक लेल जिनक विवाहित जीवनमे कोजागरा पहिले-पहिल अबैत अछि, मुदा एहिमे समवेत होइत अछि सम्पूर्ण समाज जे पूनिम केर चान, मखान, दही आ बताशाक हँसीक फुहारसँ तितैत ओहिमे अपन उछाह घोरि दैत अछि आ धरतीपर उतरि अबैत अछि स्वर्गक आनन्द।
धर्म प्रधान भारत राष्ट्रे जकाँ मिथिलोमे ओना तँॅ प्रतिदिन कोनो ने कोनो अवसर रहिते अछि जकरा लोक आनन्द-उत्साह आ आस्था-विश्वासक संग मनबै छथि। मिथिलाक अपन विशिष्टता रहल अछि जे ई जन-जीवनक प्राय: सभ पक्षकेँ अपना दृष्टिसँ देखलक अछि आ तदनुकूल अपन स्वतंत्र चिन्तन सेहो रखलक अछि। गीत-संगीत, ज्योतिष सहित विभिन्न क्षेत्रमे एकर बेछप छवि चर्चित रहल अछि। आर तँ आर मिथिला पाबनि-तिहार पर्यन्तमे अपन स्वतंत्र उपस्थिति अंकित केलक। बहुत रास एहन पाबनि अछि जे मिथिलेमे मनायल जाइत अछि। एहिमे दू गोट एहन प्रमुख पाबनि अछि जे नव विवाहित दम्पती लेल होइत अछि जिनका विवाहित जीवनमे ई प्रथमे अबै छनि। पहिल अछि ‘मधुश्रावणी’ जे नव विवाहिता कनिञा लेल होइत अछि आ दोसर ‘कोजागरा’ जे नव विवाहित वर लेल होइत अछि। दुनू पाबनि वर-कनिञा अपना नैहरमे मनबै छथि। दुनू पाबनिमे सासुरसँ पूजन सामग्री आ चुमाओनक डाला सहित घर-घरायन लेल नव वस्त्र तथा मधुर आदिक भार अबैत अछि। मधुश्रावणी महिला लोकनिक बीच आ कोजागरा महिला-पुरुष नेना-भुटका सभक लेल।  

                                                  सासुरक दूभि-धानसँ होयत चुमाओन 

कोजागरामे वरक सासुरसँ चुमाओन लेल दूभि-धान आ मधुर आदिसँ सजल डाला अबै छनि। एहिपर मखान, मखानक माला, घुनेश, चानीक कौड़ी, नारियर, केरा, दहीक छाँछ, पान, गोटा सुपारी, लौङ, इलायची आदिक संग विभिन्न तरहक मधुर फराक-फराक राखल रहैत अछि। पहिने तँ एहिपर सुपारीक गाछ, जनौ केर गाछ आदि सेहो रहैत छल जे एहि मैथिल ललनाक हस्तकलाक प्रतिभाकेँ मुखर करैत छल। आब एहिमे कमी आबि गेल अछि। डालापर लोक अपन साधंस केर हिसाबे आन-आन वस्तु सेहो सजबै छथि। एहि डालाक निरीक्षण सर-समाज करैत अछि। जे डाला जते पैघ आ नीक जकाँ सजाओल तकर तते प्रशंसा। एही डालाक दूभि-धान लऽ वरक घरक महिला लोकनि चुमाओन करै छथि आ पुरहर-पातिलक दीपसँ गाल सेदै छथि। परिवार आ सामजक वरिष्ठ पुरुष लोकनि दूर्वाक्षत मंत्रक संग दीर्घ ओ सुखी जीवनक आशीर्वाद दै छथि।
चुमाओन ओहिना नञि भऽ जायत। एहि लेल आङनमे अष्टदल अरिपन देल जायत जाहिपर डाला राखल जायत। पुरहर-पातिल आ कलशक अरिपन सेहो देल जायत। ओहिपर तरमे धान दऽ आमक पल्लव युक्त कलश प्रतिष्ठित होयत। पातिलमे दीप जरैत रहत। मिथिलाक पाबनि बिनु गीतक कोना भऽ सकैत अछि? से मैथिल ललना सभक मधुर स्वर वातावरणमे घोरायत आ चुमाओनक विधि पूरा होयत।  



                                                          सार महोदय बनता कनिञा  

पत्नीक भ्राता अर्थात् ‘सार’ शब्द कानमे पड़िते ठोर विहुँसि पड़ैत अछि। आ जँ हुनका कनिञा बना वरक संग बैसेबाक बात हो तँ मुस्की बदलि जाइत अछि ठहाकामे। से कोजागराक राति नव विवाहित वरक आङन नाँघि मैथिलानीक समवेत हँसी-ठहाका सगरो वातावरणमे पसरैत रहैत अछि। कोजागरा पाबनिक समय धरि कनिञाक दुरागमन नञि भेल रहै छनि। विवाहक चारिमे दिन दुरागमन करेबाक परम्परा आरम्भ हेबाक बादो अधिकांश ठाम ई लगले नञि होइत अछि। से कनिञा रहै छथि अपना नैहरमे। जखन वरक चुमाओन होइ छनि तँ असकर कोना हेतनि, बहुत ठाम कनिञाक स्थानपर कलशकेँ मानि लेल जाइत अछि तँ बहुतो ठाम कनिञाक स्थानपर सार महोदयकेँ बैसाओल जाइ छनि। हँ ई देखल जाइत अछि जे सार कनिञासँ छोट होथि। हुनका संग चौल करैत तौनी ओढ़ा घोघ कऽ देल जाइ  छनि आ सामूहिक हँसी-मजाकसँ घर-आङनक पोर-पोर आनन्दक सागरमे उभचुभ करऽ लगैत अछि।

                                                       बँटायत अछि पान-मखान-बतासा 

आङनमे चुमाओनक विधि आ लक्ष्मीक पूजनक बाद दलानपर हबगब तेज भऽ उठत। वरक सासुरसँ आयल मखान, पान आ बतासा समाजक बीच बाँटल जायत। बारिक एकाँएकी सभक बीच ई बँटता। एहिमे नेना-भुटकाक उछाह कने बेसी छिलकैत रहत। एक संग पचासो हाथ बारिक सोझाँ आयत आ ओ सभपर थोड़े मखान आ बतासा राखि देता। पानक बारिक पान राखि देता। एहि लेल साँझे गाम-टोलमे हकार देल जायत। लोक बेराबेरी ओहि सभ दलानपर पहुँचि पान-मखान-बतासा लेता जाहि ठाम कोजागरा मनायल जायत। रोम-रोम झकझक देखार केनिहार इजोरियामे बहुतो मखान-बतासा खायब आरम्भ करता जकर ‘कुरकुर-कुरकुर’ ध्वनि आ हकार पुरनिहारक पानसँ रङल ठोर-दाँत घरवैयाकेँ तृप्त करतनि। बहुतो ठाम-ठामसँ मखान-बतासा लऽ ओकर छोट-छोट पोटरी बनेता। एके बेर कते खेता? पोटरी बनेबाक क्रममे नेना-भुटका केर मखान-बतासा छिटेबो करत जे अगिला भोर धरि मुस्कियाइत ओहि दऽ गेनिहार बटोहीक स्वागत करत।

                                                    होयत लक्ष्मी पूजन आ रात्रि जागरणा

ओना तँ दीपावलीक राति लक्ष्मी-गणेशक पूजा सगरो होइत अछि। मिथिलोमे दीयाबातीक राति लक्ष्मी-गणेश पूजल जाइ छथि, मुदा एहि ठाम कोजागराक राति लक्ष्मी पूजन प्रशस्त अछि। एहि लेल दुआरिसँ भगवती घर धरि अरिपन देल जायत। चिनुआरपर सेहो अरिपन होयत। ओहि ठाम जल भरल लोटामे आमक पल्लव राखल जायत आ भगवतीकेँ घर करबाक विधि परिवारक वरिष्ठ महिला करती। मान्यता अछि जे कोजागराक राति लक्ष्मी घरे-घर बुलै छथि आ देखै छथि जे के जागल अछि-
निशीथे वरदा लक्ष्मी: कोजागर्तीति भाषिणी।
तस्मै वित्तं प्रयच्छामि अक्षै: क्रीड़ां करोति य:।।
एहि मान्यताक अनुरूप बहुतो रास लोक राति भरि जागरण करै छथि। जिनका ओहि ठाम पाबनि रहै छनि हुनक समय तँ हकार पुरनिहार सभक मखान-बतासा-पानसँ स्वागतमे बीति जाइ छनि, आ जिनका ओहि ठाम पाबनि नञि छनि ओहो पचीसी आदि खेलैत जागरण करैत माता लक्ष्मीक स्वागतमे राति बितबै छथि।

                                                          देओर-भाउजक बीच पचीसी

कोजागराक राति देओर-भाउजक बीच पचीसीक खेल चर्चित रहल अछि। एहि खेलमे देओर-भाउज राति बितबै छथि। एहि बीच हुनक हास-परिहाससँ वातावरण सराबोर होइत रहैत अछि, मुदा आब ई अपवादे भेटैत अछि। कारण मिथिलाक गाम-घर आब अपना लोकक बिनु उदास रहैत अछि। भाउज कोनो महानगरमे अपन पति आ बाल-बच्चाक संग बिता रहल छथि तँ देओर कतहु आन ठाम रोजी-रोटी लेल अपस्याँत छथि। यैह कारण अछि जे पहिने कोजागराक राति जतऽ घर-घर देओर-भाउजक बीच पचीसीक खेल होइ छल से समटा कऽ ओहि घरमे रहि गेल अछि जाहिमे ई पाबनि मनायल जाइत अछि। सेहो विधि पुरौअलि मात्र।

                                                     कौमुदी महोत्सवोक आयोजन 

नव विवाहित केर ओहि ठाम मनाओल जायवला कोजागरा केर अतिरिक्त एहि पाबनिकेँ विभिन्न संस्था आ संगठन कौमुदी महोत्सवक रूपमे सेहो मनबैत अछि। अनेको साहित्यिक संस्था एहि अवसरपर कवि-गोष्ठीक आयोजन करैत अछि तँ राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ सेहो एहि महोत्सवपर सामूहिक पायस भोजनक ओरियान करैत अछि। कोजागराक राति चन्द्रमाक इजोरियाक संग अमृत बरसबाक मान्यताक अनुरूप खुजल अकासक नीचाँ मखानक खीर बनाओल जाइत अछि। ओकरा बिनु झाँपन देने राखल जाइत अछि आ सभ मिलि-बाँटि खाइ छथि। पाबनिक अवसरपर लोक सभ अपना घरोमे खीर बनबै छथि।
आउ मिथिलाक एहि प्रसिद्ध पाबनिमे हमरो लोकनि सम्मिलित होइ। लक्ष्मीसँ सम्पूर्ण मिथिलापर कृपा दृष्टिक आशीर्वाद माङी। चन्द्रमासँ मिथिलाक धरतीपर अमृत-कलश उझीलि एकर पोर-पोरकेँ रसमय बनेबाक अनुनय करी जाहिसँ लहलहा उठय सभ फसिल। चली नव विवाहितक दलानपर धरतीक चान फोँका मखानक संग बतासा आ पान पाबि ली।



              कोजगरा-गीत 

 प्रस्तुति : अमलेन्दु शेखर पाठक

आइ भैया के छनि कोजगरा हे पूर्णिमाक राति।
कथी केर जुत्ता कथी केर छत्ता,
की पहिरि कऽ चलता हे । पूर्णिमा...।।
सोने केर जुत्ता रूपे केर छत्ता,
 झुनकी खराम चढ़ि चलता हे।। पूर्णिमा...।।
कथी केर थारी कथी केर कौड़ी,
 किनका संग पचीसी खेलता हे ।। पूर्णिमा...।।
सोना केर थारी चानीक कौड़ी,
 भौजी संग खेलता पचीसी हे।। पूर्णिमा...।।

            चुमाओन-गीत

भैया के करियनु चुमाओन कोजगरामे।
बाबूजी पुछि-पुछि परसथि मखान भोजघरामे।
आङन चानन नीपल गेल अछि।
गजमोती चौक पुराय देल अछि।
भैया के करिऔन चुमाओन कोजगरामे।
मानिक दीप जराओल दय-दय।
काँच बाँस के डाला लय-लय।
भैया के करियनु चुमाओन कोजगरामे।

             पचीसी-गीत

खेलू खेलू यौ भैया बाजी लगाइ कऽ।
सीता जीतथि रामजी हारथि बाजी लगाइ कऽ।
सखि सभ देथि पिहकारी बाजी लगाइ कऽ।
सीता हारथि रामजी जीतथि बाजी लगाइ कऽ।
सखी सब गेल लजाय बाजी लगाइ कऽ।
धन्य-धन्य सखी हम मिथिलावासी।
रामजी भेला जमाय बाजी लगाइ कऽ।
कौड़ी खेलऽ लेल एला जनकपुर बाजी लगाइ कऽ।
हारला माय-बहिन-पितिआइन हे बाजी लगाइ कऽ।

Sunday, 6 October 2013

आधुनिक महिषासुरक संहार लेल आउ करी क्रोध

                                        आधुनिक महिषासुरक संहार लेल आउ करी क्रोध

                                                                                             
                                                              - अमलेन्दु शेखर पाठक 

शारदीय नवरात्र आरम्भ भऽ गेल अछि। भगवतीक आराधनामे जनमन लीन भऽ रहल अछि। घरसँ बाहर धरि दुर्गा सप्तशतीक श्लोक अनुगुञ्जि भऽ रहल अछि- ‘या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।’ दस दिन धरि सौँसे मिथिलाक भक्तिक धारमे उभचुभ करत। पञ्चदेवोपासक मिथिलामे ओना तँ सभ देवी-देवताक पूजन समान आस्था आ विश्वासक संग होइ छनि, मुदा शक्तिक प्रति कने बेसी समर्पण रहल अछि। से देखबोमे आबि रहल अछि। मिथिलाक घर-घर, गाम-गाम आ नगर-नगर माताक आराधनामे रमल अछि। सार्वजनिक पूजाक आयोजनक संख्यो निरन्तर बढ़ल जा रहल अछि। जतऽ एक नगरमे गोटेक ठाम सार्वजनिक पूजा होइ छल ओहि ठाम दर्जनो ठाम पूजन भऽ रहल अछि। सार्वजनिक समितिक बढ़बाक क्रम तेहन सन अछि जे अगिला किछु बरखमे ई महल्ले-महल्ले भऽ जायत। गामोक हाल एहने अछि। पहिने दस-पन्द्रह-बीस गामपर एक ठाम सार्वजनिक पूजा होइ छल, से गामे-गाम हेबा दिस अग्रसर अछि। महिषासुरमर्दिनी भगवतीक प्रति बढ़ैत ई आस्था आ आकर्षण नीके कहल जायत, मुदा जखन एहि पूजनक प्रतिफलपरगम्भीरतासँ विचार करब तँ उछाह मन्द पड़ि जायत। शक्तिक अधिष्ठात्री माता दुर्गाक आराधना करबाक पाछाँ सभक एके उद्देश्य रहैत अछि कल्याण। किनको अपन आ परिजनक कल्याण कामना रहै छनि, तँ क्यौ जनकल्याण कहि अपन प्रयासकेँ विस्तार देबाक बात कहै छथि, मुदा की ठीके कल्याण भऽ रहल अछि? वर्त्तमान परिवेश कहि रहल अछि जे पूजनक सकारात्मक परिणाम रञ्चो मात्र कहाँ भेटि रहल अछि? से व्यक्तिगतो आ सार्वजनिको जीवनमे।
भहरि जाइए समर्पण
दस दिनक एहि पावन अवसरमे हमरा लोकनि सात्विक जीवन व्यतीत करै छी। लाखो शक्ति-उपासक भरि दसमी एके साँझ भोजन करै छथि। ओहो अरबा-अरबाइन। कते फलेपर दस दिन बितबै छथि। एहनो भक्त छथि जे जल छोड़ि आन किछु नञि ग्रहण करै छथि। भगवतीक प्रति अखण्ड आस्थेक परिणाम अछि जे कतेको गोटे छातीपर आ कि जाँघपर कलश स्थापित कऽ जयन्ती उगबै छथि। ओ दसो दिन निराहार रहै छथि। एहिमे पूर्णत: सफल रहै छथि। एहन भक्तोक संख्या कम नञि अछि। भरि मिथिलामे हजारो तँ अवश्य हेता। देवीक प्रति हृदयमे विश्वास रखनिहार समाज आ लोक भारत राष्टÑ छोड़ि अन्यत्र भेटब असम्भव। मुदा विडम्बना अछि जे ई समर्पण लगले भहरि जाइए। पूजा समाप्त होइते मानसिकता पल भरिमे बदलि जाइए। क्यौ देवी स्वरूपा पुतहुकेँ किछु टाका आ मोटर-गाड़ी लेल डाहबामे लागि जाइ छी, तँ क्यौ अपन धी-बेटीक विवाह लेल विवाह योग्य बेटीक ओहि बापक हिस्सा हड़पऽमे जुटि जाइ छी जे मेहनत-मजुरियो कऽ एहि सपनाकेँ पूरा करबामे अक्षम रहैत अछि। उचित-अनुचितक कोनो अर्थ नञि रहि जाइत अछि।

कोना करब कुमारिकार्चन
दसमीमे कुमारि पूजनक विधान अछि। मानल जाइत अछि जे कुमारि पूजने प्रमुख अछि। लोक पूरा श्रद्धाक संग कुमारि पूजन करै छथि। कुमारि बच्चीकेँ निमंत्रित कऽ अष्टमी तथा नवमी दिन तँ घरे-घर भोजन कराओल जाइत अछि। कतेको दसो दिन कुमारिकेँ भोजन करबै छथि। कुमारिक आदरक संग पैर धोअल जाइ छनि। तेल-कूर लगाओल जाइ छनि। सिन्दूरक ठोप कयल जाइ छनि। हाथ-पैर आ नह रङल जाइ छनि। नव वस्त्रमे अरबा चाउर, श्रृंगार प्रसाधन आदि दऽ खोँइछ भरल जाइ छनि। तखन भोजन परसि हुनका अगरबत्ती-धूप देखाओल जाइ छनि। भोजनक उपरान्त छोट-छोट बच्चीकेँ ओही श्रद्धाक संग पैर छूबि प्रणाम कयल जाइत अछि जे श्रद्धा भगवती दुर्गाक लेल रहैत अछि। ई घरे-घर तँ देखबा लेल भेटिते अछि, कतेको गाममे भरि गामक बेटीकेँ निमंत्रण दऽ सामूहिक रूपसँ कुमारिकार्चन होइत अछि। सार्वजनिक पूजा समिति सभ सेहो ई करैत अछि। सभक मनमे एके रंग श्रद्धा-विश्वास-आस्था, मुदा पूजा समाप्त होइते ई आस्था-श्रद्धा लुप्त भऽ जाइत अछि। से नञि होइत तँ जाहि बेटी जातिक चरणमे हम अपनाकेँ समर्पित करै छी ताहिसँ अभाँछ किए? लिंग परीक्षण किए? भ्रूण हत्या किए? हालति ई अछि जे जँ हमरा लोकनि एखन अपनाकेँ अपन सांस्कृतिक चेतनासँ पूरापूरी नञि जोड़ि सकलहुँ तँ आबऽ वला दिनमे कुमारिकार्चन आ कि कुमार पूजन-भोजन नञि कऽ सकब। कोना करब, जखन धी-बेटी रहती तखन ने ई सभ होयत। कने अपना टोल-महल्लामे नजरि घुमा कऽ देखब तँ एहि सत्यक पता चलत। एखने हाल अछि जे एकहक कुमार दसो-पन्द्रह ठामसँ निमंत्रित होइ छथि। दसमीमे सभ साल लोक बच्ची नञि भेटबाक बात कहै छथि। पूजाक बाद वैह डाक्टर लग लिंग परीक्षण लेल पहुँचि जाइ छथि। जँ हम अपन एहि मानसिकताकेँ नञि बदलै छी तँ दुर्गा पूजामे कतबो किए ने अनुष्ठान कऽ ली, भगवती प्रसन्न नञि हेती आ कल्याणक अपेक्षा दिवास्वप्न टा रहि जायत।
सजीव भगवतीक अपमान
हमरा लोकनिक चरित्रमे विरोधाभास स्पष्ट रूपसँ देखबामे आबि रहल अछि। मातृशक्तिकेँ सर्वोपरि मानि हमरा लोकनि कलशस्थापनसँ विजयादशमी धरि जाहि तरहेँ माताक पूजा-अर्चना करै छी ओ लगले समाप्त भऽ जाइत अछि। माटिक प्रतिमाक चरणमे अपनाकेँ अर्पित करबा लेल उताहुल रहै छी, मुदा सजीव भगवतीक प्रति पशुवत भऽ उठै छी। तेँ ने अबोध बच्ची पर्यन्तक संग संग दुराचार केर घटना नित्य प्रति कतहु ने कतहुसँ अबिते रहैत अछि। एहि विरोधाभासी व्यवहारक परित्याग करब तखन ने कल्याणक फल पायब। एहि लेल ओहि पाश्चात्यक मोह त्यागऽ पड़त जे नारीकेँ उपभोगक   वस्तु मात्र बुझैत अछि। ओकर देह-यष्टि मात्रकेँ महत्व दैत अछि। हमरा लोकनिकेँ एहिसँ बचबा लेल अपना माटि-पानि, अपन संस्कृति, अपन चिन्तनक लेल अपना भीतर मोह उत्पन्न करऽ पड़त। अपन ओहि संस्कृतिक मोह जे नारीकेँ पूज्या बनबैत अछि। जँ एहि भावकेँ अपना हृदयमे समेटि नञि सकलहुँ तखन कल्याण कोना?
त्यागऽ पड़त बाह्याडम्बर
पाश्चात्यक प्रति रुखि बाह्य आडम्बरकेँ निरन्तर बढ़बैत जा रहल अछि। भने भक्तक हृदयमे श्रद्धाक हिलोर उठैत रहओ, आयोजक एहि दिशामे अपवादे स्वरूप गम्भीर भेटता। अधिकांश ठाम आयोजनमे शास्त्रीयता दोसर स्थानपर आबि गेल अछि। पहिल स्थानपर चाक-चिक्य आबि गेल अछि। शोभा यात्रा बहार करबाक चिन्ता बेसी कयल जाइत अछि, समयपर पूजा-अर्चनाक कमे ठाम। ई सभ भऽ रहल अछि अपन मूल संस्कृतिक प्रति गौरवक अभाव आ ओकरा महत्वहीन बुझबाक कारणेँ। तेँ एहि अवसरपर जँ कोनो गीत-संगीतक आयोजनो होइत अछि तँ ओ शुद्ध सांस्कृतिक नञि होइत अछि। एहि नामपर फूहड़ताकेँ प्रश्रय भेटैत अछि जे कोनो अर्थे कल्याण नञि कऽ सकैत अछि। कल्याण लेल आबऽ पड़त अपन सांस्कृतिक परम्पराक शरणमे।
समन्वित शक्तिक चाही योग्यता
आउ जनकल्याणक लेल मिलि कऽ एकसंग करी क्रोध। क्रोधकेँ अधलाह मानल गेल अछि। आधुनिक विज्ञानो एकरा अधलाह मानैत अछि। अपना ओहि ठामक चिन्तनो। कहै छै जे क्रोध बहुत रास रोगकेँ जन्म दैत अछि। क्रोधकेँ ओहि जरैत लकड़ीक समान मानल गेल अछि जे पहिने अपने जरैत अछि तखन सम्पर्कमे एनिहारक अहित करैत अछि। मुदा भगवती दुर्गाक आविर्भाव क्रोधेसँ भेलनि। जखन आततायी महिषासुरसँ पीड़ित-सीदित देवगण शिव आ विष्णु लग पहँुचला आ दानव द्वारा सभ देवताकेँ देवलोकसँ खेहारि देल जेबाक बात कहलनि तँ भगवान शंकर आ विष्णुकेँ क्रोध भेलनि। हुनक भौँह चढ़ि गेलनि। क्रोधे मुँह विकृत भऽ उठलनि आ ओहिसँ एकगोट तेज बहार भेल। सभ देवता मिलि अपन-अपन तेजकेँ समन्वित केलनि आ भगवतीक आविर्भाव भेलनि। हुनका सभ देवता अपन अस्त्र-शस्त्रसँ सुसज्जित केलनि। तखन सभक समन्वित शक्तिसँ युक्ता भगवती महिषासुरक संहार केलनि। आधुनिक महिषासुरक वध लेल सेहो एहने समन्वित शक्ति चाही। हँ एहि लेल चाही अपनामे शक्ति जकरा समन्वित करब। एहि शक्ति-सञ्चय लेल भगवान शंकर, विष्णु, ब्रह्मा आदि देवता सन सामर्थ्य चाही, तखने ने हमरा सभक समवेत शक्तिसँ उत्पन्न भऽ सकती कोनो दुर्गा जे आधुनिक असुरक नाश करती। आउ एहि लेल अपनाकेँ तदनुकूल बनाबी। एहि लेल माता दुर्गासँ माङी आशीष। एहि लेल दृढ़ता चाही। शुद्ध-सात्विक आचरण चाही। एखन तँ सगरो महिषासुरेक शक्ति एकत्रित नजरि अबैत अछि। एहिसँ भगवती दुर्गा त्राण देआबथि आ हमरा तेहन शक्ति-सम्पन्न आचारवान बनाबथि जे हुनके सन दुष्टमर्दिनी मातृशक्ति प्राप्त करबामे सक्षम होइ ताहि लेल तँ हुनके चरणमे शरण।   

Wednesday, 2 October 2013

भगवती गीत



                             













 देवी पक्ष आरम्भ भऽ रहल अछि, आउ मिथिलाक परम्पराक अनुसार करी भगवतीक सांगीतिक स्मरण :


                 प्रार्थना
  
          - अमलेन्दु शेखर पाठक

आदिशक्तिश्वरी  श्यामा चण्ड-मुण्ड विनाशिनी।
भैरवी भय - हारिणी  दुर्गा जगत - उद्धारिणी।।

शैलपुत्री - ब्रह्मचारिणि - चन्द्रघण्टा  छी अहीँ।
शिवा-कूष्माण्डा-भवानी-स्कन्दमाता पद गही।।
चरण-तलमे पड़ल शिव जननी अहीँ कात्यायनी।
आदिशक्तिश्वरी श्यामा चण्ड-मुण्ड विनाशिनी।।

कालरात्रि - कपालिनी  हे  महागौरि स्वरूपिणी।
सिद्धिदात्री   भगवती   छी   सर्वमंगलकारिणी।।
हे मृडानी - रुद्रिणी  माँ  मुण्ड - मालाधारिणी।
आदिशक्तिश्वरी श्यामा चण्ड-मुण्ड विनाशिनी।।

महाकाली - मैथिली - शाम्भवी-केहरि वाहिनी।
खड्गिनी-चक्रिणी-कमला अहीँ वीणा-वादिनी।।
भावना  ‘अमलेन्दु’  अर्पित मातु मोक्ष-प्रदायिनी।
आदिशक्तिश्वरी श्यामा चण्ड-मुण्ड विनाशिनी।।
           *************

जय शिव प्रिये

- अज्ञात 

जय शिव  प्रिये  शंकर प्रिये  जय  मंगले  मंगल करू।
जय अम्बिके जय त्र्यम्बिके जय चण्डिके मंगल करू।।

अनन्त    शक्तिशालिनी    अमोघ   शस्त्रधारिणी।
निशुम्भ - शुम्भ  मर्द्दिनी त्रिशूल - चक्र-पाणिनी।।
जय  भद्रकालि - भैरवी जय भगवती मंगल करू।
जय वैष्णवी विश्वम्भरी जय शाम्भवी मंगल करू।।

कराल   मुख   कपालिनी  विशाल मुण्डमालिनी।
असीम    अट्टहासिनी    त्रिमूर्त्ति   सृष्टिकारिणी।।
हे   ईश्वरी  परमेश्वरी  सर्वेश्वरी   मंगल  करू।
कात्यायिनी   नारायणी  माहेश्वरी  मंगल  करू।।

प्रकृति अहीँ  सुकृति अहीँ  दया अहीँ क्षमा अहीँ।
स्वधा  अहीँ  छटा अहीँ  कला अहीँ प्रभा अहीँ।।
दुखहारिणी  सुखकारिणी  हे  पार्वती  मंगल करू।
हे ललित शक्ति प्रदायिनी सिद्धेश्वरी मंगल करू।।

जय शिव  प्रिये  शंकर प्रिये  जय  मंगले  मंगल करू।
जय अम्बिके जय त्र्यम्बिके जय चण्डिके मंगल करू।।
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गोसाउनिक गीत 

- महाकवि विद्यापति 

जय-जय भैरवि असुर भयाउनि, पशुपति भामिनि माया।
सहज सुमति वर दिअओ गोसाउनि, अनुगत गति तुअ पाया।।

वासर रैनि शवासन शोभित, चरण चन्द्रमणि चूड़ा।
कतओक दैत्य मारि मुँह मेलल, कतओ उगिलि कयल कूड़ा।।

सामर वरन नयन अनुरञ्जित, जलद जोग फुल कोका।
कट-कट विकट ओठ-पुट पाँड़रि, लिधुर फेन उठ फोका।।

घन-घन घनन घुँघुरु कत बाजय, हन-हन कर तुअ काता।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र बिसरु जनि माता।।
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कनक भूधर शिखरवासिनि

- महाकवि विद्यापति 

कनक-भूधर - शिखर-वासिनि, चन्द्रिकाचय  चारु  हासिनि।
         दशन - कोटि -विकास बंकिम, तुलित चन्द्रकले।।
क्रुद्ध-सुर-रिपु-बल-निपातिनि, महिष-शुम्भ-निशुम्भघातिनि।
                भीत-भक्त   भयापनोदन,  पाटब - प्रबले।।
जय  देवि  दुर्गे  दुरित - तारिणि, दुर्ग  मारि-विमर्द-कारिणि।
                      भक्ति-नम्र-सुरासुराधिप-मंगलायतरे।।
गगन -  मण्डल -  गर्भगाहिनि  समर  भूमिषु  सिंहवाहिनि।
              परशु-पाश-कृपाण-सायक-शंख-चक्र-धरे।।
अष्ट - भैरवि- संग-शालिनि स्वकर-कृत्त-कपाल-मालिनि।
               दनुज-शोणित-पिशित-बर्द्धित पारणा रभसे।।
संसारबन्ध - निदान - मोचिनि-चन्द्र-भानु-कृशानु लोचिनि।
                   योगिनीगण-नृत्य शोभित नृत्य भूमि रसे।।
जगति  पालन - जनन - मारण -रूप-कार्य-सहस्र-कारण।
               हरि-विरञ्चि-महेश-शेखर-चुम्ब्यमान-पदे।।
सकल - पापकला - परिच्युत सुकवि विद्यापति-कृत-स्तुति।
                   तोषिते शिवसिंह-भूपति-कामना फलदे।।
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सिंहपर एक कमल...

सिंहपर एक कमल राजित
ताहि ऊपर भगवती।
शंख गहि-गहि चक्र गहि-गहि
लोक के माँ पालती।।
दाँत खट-खट जीह लह-लह
सोणित दाँत मढ़ावती।
शोणित टप-टप पिबथि जोगिनि
विकट रूप देखावती।।
ब्रह्म एलनि विष्णु एलनि
शिवजी एलनि एहि गती।।
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मैया आबि रहल...

मैया आबि रहल छथि हुनकर नुपूर रुनझुन बाजनि हे।
सिंह चढ़ल एक कमल विराजित ताहिपर खप्पर नेने हे।।

कारी केश हुनक अति सुन्दर धरती लोटनि हे।
रुण्ड-मुण्डसँ देह नुकौने रूप बनौने हे।।

अस्त्र-शस्त्र के धारण कयने खल-खल हँसथिन हे।
यैह थिकी काली दुर्गा तारा भगत उधारिनि हे।।

जय-जय अम्बे जय जगदम्बे जगत उधारिनि हे।
सेवक सब कलजोड़ि ठाढ़ छथि गोड़ लगै छथि हे।।
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